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आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ]
[ ओसवाल संवत् ३८८
श्रीसंघ का आत्म कल्याण हो रहा था फिर भी आचार्य समयज्ञ थे अपने अाज्ञावृति साधुओं को दूर २ प्रदेश में विहार करवाया करते थे । अतः उन साधुओं में पदवीधरों की भी आवश्यकता थी। अतः सूरिजी ने अपने योग्य साधुओं को पदवियां प्रदान करने का भी निश्चय कर लिया था। यही कारण था कि दूसरे दिन पुनः सभा करके उपकेशगच्छ, कोरंटगच्छ और वीरसंतानियों में जो पदवियों के योग्य साधु थे उनको पदवियों से विभूषित किया। जैसे-१५ साधुओं को उपाध्यायपद २७ साधुओं को पण्डित पद १९ साधुओं को वाचनाचार्य १६ साधुओं को गणिपद ११ साधुओं को अनुयोग आचार्य पद
इत्यादि योग्य मुनियों को पदवियां देकर इनके उत्साह में खूब बृद्धि की बाद उन मुनियों की नायकत्व में प्रत्येक २ प्रान्तों में बिहार करने की आज्ञा देदी । और सूरिजी स्वयं ५०० साधुओं के साथ बिहार करने को तत्पर हो गये।
इसके अलावा कोरन्टगच्छाचार्या सर्वदेवसूरि के शिष्यों के लिये भी भिन्न २ प्रान्तों में बिहार करने की सलाह देदी और उन्होंने भी धर्मप्रचार निमित्त विहार कर दिया
___ सूरिजी ने इस बात को ठीक समझ ली थी कि जिन साधुओं का जितना विशाल क्षेत्र में विहार होगा उतना ही धर्म प्रचार अधिक बढ़ेगा । कारण जनता झुकती है पर झुकानेवाला होना चाहिये इत्यादि उपकेशपुर में सभा करने से जैनों में खूब अच्छी जागृति हुई इसका सबश्रेय हमारे चरित्रनायक सूरीश्वरजी ही को है । साथ में उपकेशपुर नरेश का कार्य भी प्रशंसा का पात्र बन गया था।
श्राचार्य सिद्धसूरिजी ने अपनी छत्तीस वर्ष की आयु में गच्छ का भार अपने शिर पर लिया था और ६४ वर्ष तक आपने शासन चलाया जिसमें आपने प्रत्येक प्रान्त में अनेक २ बार भ्रमन कर अनेक भूलेभटके मांसाहारियों को जैनधर्म की शिक्षा दीक्षा देकर उनका उद्धार कर महाजनसंघ में वृद्धि की । कई प्रान्तों से तीर्थों के संघ निकलवा कर उनको तीर्थयात्रा का लाभ दिया । कई मंदिर मूर्तियों एवं विद्यालयों की प्रतिष्ठा करवाई। कई मुमुक्षुओं को संसार से मुक्त कर जैनधर्म की दीक्षा देकर श्रमणसंघ की संख्या बढ़ाई । कई स्थानों पर बौद्ध और वेदान्तियों के साथ शास्त्रार्थ कर जैनधर्म की विजय पताका फहराई । कहने की आवश्यकता नहीं है कि उस विकट परिस्थिति में आप जैसे शासन हितैषी सूरीश्वरजी ने ही जैनधर्म को जीवित रक्खा था । उस समय पृथक २ आचार्य होने पर भी संघ में छेद-भेद कोई नहीं डालते थे। संघ भी सबका यथायोग्य सत्कार करता था । यही कारण था कि उस समय का संघ संगठित व्यवस्थित एवं मजबूत था। कोई भी जाति वर्ण का क्यों न हो पर जिसने जैनधर्म स्वीकार कर लिया उसके साथ रोटी बेटी व्यवहार बड़ी खुशी के साथ कर लिया जाता था और उनको सब तरह की सहायता पहुँचा कर अपने बराबर का भाई बनालिया जाता था। धर्म के साथ इस प्रकार की सुविधाओं के कारण ही जैनों की संख्या करोड़ों तक पहुँच गई थी। उस समय धार्मिक कार्यों में जैनाचार्य का प्रभुत्व था। उनकी आज्ञा का सर्वत्र बहुमान पूर्वक पालन किया जाता था धर्माचार्य और श्रमणसंघ में आपसी प्रमस्नेह वात्सल्यता इस प्रकार थी कि वे पृथक् २ गच्छ के होने पर भी एक रूप में दीखते थे । एक दूसरे के कार्यों का अनुमोदन करते थे ! इतना ही क्यों बल्कि एक दूसरे के कार्य में मदद कर उसको सफल बनाने की कोशिश भी किया करते थे इतना वृहद कार्य करने पर भी मान अहंकार या अहं पद तो उनके नजदीक तक भी नहीं फटकता था । आडम्बर के स्थान वे कार्य करने में अपना गौरव समझते थे ।
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