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वि० पू० १२ वर्ष ]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
कार्यकुशलता जगत विख्यात ही थी। दूसरे धर्म प्रचार के उद्देश्य से श्राये हुओं के लिये स्वागत की इतनी आवश्यकता ही नहीं थी कारण वे सब लोग कार्य करने वाले ही थे ।
सभा मण्डप खुल्ला मैदान में इतना विशाल बनाया गया था कि जिसमें हजारों नहीं पर लाखों मनुष्य सुखपूर्वक बैठ सकें। जिसमें भी महिलाओं के लिये खास प्रबन्ध था
ठीक माघशुक्ला पूर्णिमा के दिन श्राचार्य सिद्धसूरिजी महाराज की अध्यक्षता में सभा हुई । मंगलाचरण के पश्चात कई सज्जनों के भाषण हुये तदनन्तर आचार्य सिद्धसूरि के धर्मप्रचार के विषय में व्याख्यान हुआ । श्राचार्य रत्नप्रभसूरि के समय की कठिनाइयों, तपश्चर्या और सहनशीलता तथा उन्होने मरुधर में किस प्रकार जैन धर्म की नीव डाल कर महाजनसंघ की स्थापना की उनके सहायक राव उत्पलदेव मंत्री ऊहड़ का स्वार्थ त्याग और धर्मप्रचार का इतिहास बड़ी ओजस्वी वाणी द्वारा सुनाया कि सुनने वालों के हृदय में एक नयी शक्ति उत्पन्न हो गई। साथ में बौद्ध और वेदान्तियों के धर्म प्रचार का दिग्दर्शन भी करवाया तथा बतलाया कि जिस धर्म में राजसत्ता काम करती हो वही धर्म राष्ट्रधर्म बन जाता है । सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म के और पुष्पमित्र ने वेद धर्म के अन्दर जान डाल कर उसका प्रचार किया था क्रमशः उसका पगपसारा आपके प्रदेशों में भी होने लगा अतः आप लोगों को भी कमर कस कर तैयार रहना चाहिये । धर्म प्रचार के लिये एक श्रमण संघ ही पर्याप्त नहीं पर इसमें श्राद्ध वर्ग की भी आवश्यकता है। रथ चलता है वह दो पहियों से चलता है जिसमें भी राजाओं का तो यह कर्त्तव्य ही है कि वह अपनी तमाम शक्ति धर्म प्रचार में लगा दें। देखिये पूर्व जमाने का इतिहास
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१ -- आचार्य रत्नप्रभसूरि के धर्म प्रचार में राजा उत्पलदेव ने सहयोग दिया था । २ - श्राचार्य यक्षदेवसूरि के धर्म प्रचार में राव रुद्राट और कुंवर कक्क सहायक थे ३ - आचार्य कक्कसूरि के धर्म प्रचार में राजा शिव की सहायता थी । धर्म प्रचार में सम्राट चन्द्रगुप्त ने सहयोग दिया था। धर्म प्रचार में सम्राट सम्प्रति की सहायता थी ।
४ - आचार्य भद्रबाहु के ५- आचार्य सुहस्थी ६ - आचार्य सुस्थीसूरि के धर्म प्रचार में चक्रवर्त्ति महाराज खारवेल की मदद थी ।
इत्यादि अनेक उदाहरण विद्यमान हैं । अतः आप लोगों को भी चाहिये कि धर्म प्रचार में साधुओं का हाथ बटावे । अर्थात् यथा साध्य सहायता पहुँचावे --
सूरिजी महाराज के प्रभावशाली उपदेश का उपस्थित चतुर्विध श्रीसंघ पर काफी प्रभाव पड़ा और उसी सभा अन्दर कई लोग बोल उठे कि पूज्यवर ! जैसे आप श्रज्ञा फरमावें हम लोग पालन करने को तैयार हैं एवं कटिवद्ध हैं। इससे सूरिजी महाराज ने अपने परिश्रम को सफल हुआ समझा ।
तत्पश्चात् भगवान महावीर और गुरुवर्य्य रत्नप्रभसूरीश्वरजी की जय ध्वनि के साथ सभा विसर्जन हुई। रात्रि समय राव रत्नसी ने एक सभा की जिसमें संघ श्रमेश्वर नरेश एवं क्षत्रिय और व्यापारी सब लोग शामिल थे। मुख्य बात सूरिजी के उपदेश को कार्य में परिणित करने की थी जिसको सब लोगों ने सहर्ष स्वीकार करली |
उस समय उपकेशगच्छ एवं कोरटगच्छ में नायक श्राचार्य एक-एक ही हुआ करते थे । यही कारण था कि उस समय का संगठन बल अच्छा व्यवस्थित था और एक ही आचार्य की नायकता में चतुर्विध
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