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आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ]
[ ओसवाल संवत् ३८८
का प्रस्ताव रखा जाय तो उम्मेद है कि इस कार्य में सफलता मिल सके। राजा ने अपना विचार सूरिजी के सामने उपस्थिति किया तो सूरिजी ने प्रसन्नतापूर्वक राजा के कार्य पर अपनी अनुमति देदी। पर त्रिशेपता यह थी कि सूरिजी ने कहा कि यह सभा केवल मरुधरवासियों के लिये ही न हो पर जहाँ उपकेशगच्छ एवं वंश के साधु एवं श्रावक हों उन सबके लिये की जाय अर्थात् मरुधरलाट, सौराष्ट्र, कच्छ, सेन्ध, पांचाल, आवन्ती और मेदपाट वगैरह सब प्रान्तों के लिये हो कि तमाम लोग इसमें भाग ले सकें । यह बात राजा के जँचगई और उसने कहा इसके लिये समय निर्णय करना चाहिये । सूरिजी ने कहा कि
शुक्ल पूर्णिमा जो कि आचार्य रत्नप्रभसूरिजी के स्वर्गारोहण का दिन हैं मुकर्रर किया जाय तो अच्छा है । राजादि श्रीसंघ ने सब प्रकार से ठीक समय निश्चित कर लिया । बस, सकल श्रीसंघ की सम्मति लेकर राजा ने यथा समय अपने मनुष्यों द्वारा प्रत्येक प्रान्त में आमंत्रण पत्रिकायें भिजवा दीं। और आप स्वागत के लिये तैयार करने में जुट गया । उपकेशपुर की जनता में इतना उत्साह बढ़ गया कि वे अपने घरों के कामों को छोड़कर इस धर्म कार्य में संलग्न होगये ।
वह समय इतना संतोषवृत्ति का था कि जनता में न तो इतनी तृष्णा थी और न इतनी आवश्यकतायें ही थीं । कारण एक तो देवी का वरदान था कि "उपकेशे बहुलं द्रव्यं" उपकेशवंशियों के पास द्रव्य बहुत था। दूसरे उस जमाने में सब लोग सादा और सरल जीवन गुजारते थे । अतः उनको दो-दो चारचार और छ: छः मास जितने समय की फुरसत मिल सकती थी ।
राजा रत्नसी आदि उपकेशपुर श्रीसंघ की ओर से आमंत्रण मिलने से प्रत्येक प्रान्त चहल-पहल मच गई और सब लोगों की सूरत उपकेशपुर की ओर लग गई। कई लोग तो साधुओं के साथ तीर्थ यात्रा की भांति छरी पाली संघ लेकर उपकेशपुर की ओर प्रस्थान कर दिया था तब कई लोग अपनी सवारियों के जरिये आ रहे थे !
उपकेशपुर एक यात्रा का धाम वन गया था । वास्तव में था भी तीर्थ स्वरूप जहाँ शासनाधीश भगवान् महावीर और महाजनसंघ संस्थापक आचार्य रत्नप्रभसूरिजी की यात्रा हो फिर इससे अधिक क्या हो सकता है कि जहाँ देव गुरु की यात्रा तथा स्थावर तीर्थ के साथ जंगमतीर्थ की यात्रा का भी लाभ मिले।
उपकेशगच्छ, कोरंटगच्छ के साधुओं के अलावा लाट सौराष्ट्र एवं आवन्ति प्रदेश में भ्रमण करने वाले वीर सन्तानिये भी गहरी तादाद में पधारे थे। सब का स्वागत बड़े ही समारोह के साथ हुआ विशेषता यह थी कि पृथक २ गच्छों के श्रमण होने पर भी एक ही स्वरूप में दीखते थे। सब का आहार पानी वन्दन व्यवहार शामिल था। इस प्रकार श्रमण संघ की वात्सल्यता का प्रभाव जनता पर कम नहीं पड़ा था। वे देख कर मंत्र मुग्ध बन गये थे और यह श्रमर वात्सल्यता भाव प्रारम्भ कार्य की भावी सफलता की सूचना दे रहा था ।
जिस प्रकार श्रमण संघ के झुण्ड के झुण्ड आ रहे थे । इसी प्रकार श्राद्धवर्ग भी विस्तृत संख्या में ये थे । और वे भी केवल साधारण लोग ही नहीं थे पर कोरंटपुर का राव, चन्द्रावती का राजा, भीम माल का राव, कच्छ का नरेश, सिन्ध का शव वगैरह २ जैन धर्मापासक नरेश एवं बड़े २ श्रावक लोग
एकत्र हुये थे । आगन्तुकों के स्वागत का इन्तजाम पहले से ही हो रहा था । कारण मरुधरवासियों की
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