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वि० पू० १२ वर्ष ]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
२ - गुरु- कनक कामिनी के त्यागी पंच महाव्रत अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह के पालक जनकल्याण के लिये जिन्होंने अपना जीवन अर्पण कर दिया हो उनको गुरु मानना चाहिये ।
३- धर्म - देव की आज्ञा जैसे 'अहिंसा परमोधर्मः' को धर्म समझना ।
इन तीनों तत्वों को व्यवहार से सम्यग्दर्शन कहते हैं तथा मिध्यात्वमोहनिय ( कुदेव कुगुरु, कुधर्म की श्रद्धा रखना ) मिश्रमोहनीय ( असत्य सत्य को एक सा ही मानना ) सम्यक्त्वमोहनिय और अन्तानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ एवं इन सात प्रकृति का क्षय करना इसको निश्चय सम्यग्दर्शन कहा जाता है. इसके साथ तप करने से सम्पूर्ण फल मिलता है ।
सन्यासीजी ने अपने जीवन में इस प्रकार के शब्द पहिले पहिल सूरिजी से ही सुने थे । अतः कुछ समय विचार कर बोला पूज्यवर ! मेरी इच्छा है कि मैं आपके चरण कमलों में रहकर सम्यग्दर्शन के साथ तप कर आत्मा से परमात्मा बनूं ।
सूरिजी ने कहा 'जहां सुखम् ' देवानुप्रिय ! केवल आप ही क्यों पर पूर्व जमानों में शिवराजर्षि, पोग्गल सन्यासी और खंदक वगैरह बहुत भव्यों ने इसी मार्ग का अनुकरण किया है और आत्मार्थी मुमुक्षुओं का यह कर्तव्य भी है कि सत्य मार्ग को स्वीकार कर अपना आत्मकल्याण करे |
सन्यासीजी ने अपने भंडोपकरण एक तरफ रखकर सूरिजी के चरण कमलों में भगवती जैनदीक्षा स्वीकार करली । सूरिजी ने दीक्षा देकर आपका नाम 'कल्याणमूर्त्ति' रख दिया ।
नूतन मुनि कल्याणमूर्ति ज्यों ज्यों जैनधर्म की क्रिया और ज्ञानाभ्यास करते गये त्यों २ आपको बड़ा भारी आनन्द आता गया । आपने सोचा कि मेरे जैसी अनेक आत्मायें अज्ञानसागर में गोता खा रही हैं । अतः मेरा कर्तव्य है कि मैं उन्हें समझा बुझा कर जैन धर्म की राह पर लाकर उनका उद्धार करूं । अतः सूरिजी से आज्ञा लेकर कई साधुओं के साथ आप विहार कर जैनधर्म के प्रचार में लग गये ! इस प्रकार सूरिजी ने अनेक मुमुक्षुओं को दीक्षा देकर जैनधर्म के प्रचार में लगा दिया । आचार्य सिद्धसूरि अनेक प्रान्तों में विहार करते हुये एक समय उपकेशपुर नगर की ओर पधार रहे
मिला तो उनके हर्ष का पार नहीं
।
सूरिजी ने चतुर्विध श्री संघ के अहोभाग्य समझा । सूरिजी
थे। इस बात का पता वहाँ के राजा रत्नसी श्रादि वहाँ के श्री संघ को रहा। उन्होंने सूरिजी का नगर प्रवेश बड़े ही समारोह के साथ करवाया साथ भगवान महावीर और गुरु रत्नप्रभसूरिजी के दर्शन स्पर्शन कर अपना का व्याख्यान हमेशा त्याग वैराग्य पर होता था । राजा प्रजा को बड़ा ही आनन्द आ रहा था । श्रीसंघ ने सूरिजी से चर्तुमास की आग्रह से विनती की और सूरिजी ने लाभ लाभ का कारण जान चर्तुमास उपकेश कर दिया ।
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एक दिन सूरिजी ने आचार्य रत्नप्रभसूरि और राजा उत्पलदेव व मंत्री ऊहड़ादि का उदाहरण बतलाते हुये समझाया कि उन महापुरुषों ने जैनधर्म के प्रचार के लिए कितना भागीरथ प्रयत्न किया था कि जिसकी बदौलत आज जैनधर्म का चारों ओर सितारा चमक रहा है। अतः आप लोगों को भी उन उपकारी महात्माओं का अनुकरण करना चाहिये इत्यादि ।
सूरिजी का उपदेश सुनकर राजा रत्नसी ने अपने विचारों को कई तरफ दौड़ाते हुये अन्त में इस निर्णय पर स्थिर किया कि उपकेशपुर में एक विराट् सभा का आयोजन किया जाय और उसमें धर्मप्रचार
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