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________________ आचार्य सिद्धसरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ३८८ सूरिजी ने तप का महत्व बतलाते हुये कहा कि महात्माजी ! तप कोई साधारण व्रत नहीं है । पर पूर्व संचित कई भवों के कर्मों को नष्ट करने के लिये सर्वोत्कृष्ट व्रत तप ही है। तप से आत्मा का विकास होता है अनेक चमत्कारपूर्ण लब्धियें तप से उत्पन्न होती हैं। इतना ही क्यों पर संसार में जन्म मरण का महान दुःख है जिसको समूल नष्ट करने में तथा आत्मा से परमात्मा बनने में मुख्य कारण तप ही है। पूर्व जमाने में बड़े बड़े ऋषियों ने सैकड़ों हजारों वर्ष तक तपस्या की थी जिसका उल्लेख शास्त्रों में मिलता है और इस तप के भी अनेक भेद हैं जैसे-१-बाह्यतप २-आभ्यान्तर तप बाह्यतप उसे कहते हैं कि जिस तप को लोग जान सकते हैं । जैसे १----अनशन तप-उपवासादि अनेक प्रकार के तप किये जाते हैं। २-- उणोदरी-जो खाने पीने की खूराक है जिसमें कुछ कम खाना तथा कषाय को मंद करना । ३-भिक्षाचरी तप-आहार पानी की शुद्धता और अनेक प्रकार के अभिग्रहादि करना यह भी एक तप है। ४ -- रसत्याग-दूध, दही घृत, मिष्टान्न आदि रस का त्याग करना । ५-कायाक्लेश तप-योग के ८४ श्रासन, तथा अवापना लेना, लोच करना इत्यादि । ६-प्रतिसलेखना तप-पशु, नपुंसक, स्त्रीमुक्त स्थान में रहना इन्द्रियों का दमन करना इत्यादि । इन छः प्रकार के तप को बाह्य तप कहते हैं तथा आभ्यान्तर तप निम्न प्रकार है। १-प्रायश्चित तप-अपने व्रतों में दूषण लगा हो, उसकी गुरु के पास में आलोचना करनी और गुरुदत्त प्रायश्चित का तप करना इसके शास्त्रों में ५० भेद बतलाये हैं। २- विनयतप-गुरु आदि वृद्ध एवं गुणीजनों का विनय करना इसके १३४ भेद कहे हैं। ३-- व्यावञ्चतप-वृद्ध ग्लानी तपस्वी ज्ञानी और नवदीक्षित की व्यावच्च करना इसके १० भेद हैं। ४-स्वाध्याय तप-पठन पाठन मनन निधिध्यासनादि करना इसके. ५ भेद हैं। ५-ध्यान तप-आर्त रौद्रध्यान से बचना, धर्म व शुक्लध्यान का चिन्तवन आसन, समाधि, योग श्राध्यात्म विचारणा को ध्यान कहते है । ६-विउस्सग्ग तप-कर्म कषाय संसारादि का त्याग रूप प्रयत्न करना इसके भी अनेक भेद हैं। इन छः प्रकार के तप को आभ्यान्तर तप कहा जाता है । सन्यासीजी ! इस तप के साथ एक वस्तु की और भी खास जरूरत रहती है। जैसे औषधि के साथ अनुपान होता है और अनुकूल अनुपान से दवाई विशेष गुण देती है। इसी प्रकार तप के साथ सम्यग्दर्शन की जरूरत रहा करती है । सम्यग्दर्शन के साथ तप किया जाय तो कर्म को शीघ्र ही नष्ट कर आत्मा से परमात्मा बन सकता है । सन्यासीजी ने कहा, पूज्यवर ! मैं आपकी परिभाषा में नहीं समझता हूँ। कि सम्यग्दर्शन किसको कहते हैं । कृपा कर इसका खुलासा करके समझा। सूरिजी ने कहा कि सम्यग्दर्शन, उसे कहते हैं कि-सुदेव, सुगुरु, सुधर्म पर श्रद्धा रखना । १-देव-सर्वज्ञ, वीतराग, अष्टादश दूषण रहित और द्वादशगुण सहित विश्वोपकारी हो जिनका अलौकिक जीवन और मुद्रा में त्याग शान्ति और परोपकार भरा हो । उनको देव समझना चाहिये । ५२ Jain Education International For Private & Personal Use Only २०९ www.janelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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