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________________ वि० पू० १२ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास राना सूरिजी के पास आया और विनय के साथ सब हाल निवेदन किया इस पर सूरिजी ने कहा कि हे राजन हम लोगों का यह आचार नहीं है कि हम किसी को बहकावें एवं भ्रम में डाल कर दीक्षा दें। यदि इसप्रकार से कोई दीक्षा ले भी ले तो वह दीक्षा पाल भी कैसे सकेगा है ? भले ! बहकाने से ही कोई दीक्षा लेता हो तो हम आपको एवं सबको ही बहका देते हैं सब दीक्षा लेने को तैयार होजाइये ? नरेश ! जैनदीक्षा कोई बच्चों का खेल नहीं है कि बिना वैराग्य बिना आत्म ज्ञान कोई लेकर उसका पालन कर सकें। खैर कोई महानुभाव ! सच्चा दिल से दीक्षा लेना भी चाहता हो तो उसको अन्तराय देना भी तो महान् पाप है यदि बुढ़िया कुछ कहती हो तो उस को समझना चाहिये कि किस की माता और किस के पुत्र यह तो एक मुसाफिर वाला मेला मिला है न जाने काल के मुँह में माता पहले जायेगी या पुत्र ? अगर किसी माता का पुत्र दीक्षा लेता हो तो उस माता को बड़ी खुशी मनानी चाहिये कि जिसकी कुक्ष में जन्म लेकर स्व पर का कल्याण करने वाला पुत्र अपनी माता की कुक्ष को रत्नकुक्ष बना देता है और वह माता सर्वत्र धन्यवाद के योग्य कहलाई जाती है । राजन् ! आप जानते हो कि हम लोगों को इस में क्या स्वार्थ है ? हम लोग तो केवल जनता का कल्याण के लिये ही उपदेश एवं दीक्षा देते हैं फिर भी हमारा कोई आग्रह नहीं है जैसे जिनको अच्छा लगे वह वैसा ही करे इत्यादि । राजा सूरिजी का वचन सुन कर समझ गया कि सूरिजी परोपकारी हैं अतः राजा ने बुढ़िया को सममा बुझा कर आज्ञा दीलादी और खुद राजा ने दीक्षा का बड़ा ही शानदार महोत्सव किया। सूरिजी ने क्षत्री वीर शोभा को दीक्षा देकर उसको शोभा यसुंदर बना लिया। मुनि शोभाग्यसुन्दर पर सूरिजी की पूर्ण कृपा थी उसने शास्त्रों का अध्ययन के पश्चात् छट अट्ठमादि विविध प्रकार की तपस्या करना प्रारम्भ कर दिया इतना ही क्यों पर तपस्या के पारणा के दिन कई प्रकार के अभिग्रह भी किया करता था और वे भी ऐसे कठिन अभिग्रह थे कि जिसके पूर्ण होने में कई दिन नहीं पर कोई मास तक भी पारणा नहीं होता था। एक वख्त आपने तपस्या के पारणा के लिए अभिग्रह कर उसकी यादी एक कागज पर लिख उसको बन्द कर गुरु महाराज को दे दी थी और पारणा के लिए शहरों में ही नहीं पर पात्र लेकर जंगलों में भी भ्रमण किया करते थे शायद इस अभिग्रह का सम्बन्ध जंगल से भी होगा। इस प्रकार तपोवृद्धि करता हा मुनिजी पुनः वल्लभी नगरी में आये आपकी तपस्या के कारण नगरी में सर्वत्र प्रशंसा फैल गई पर वहाँ एक सन्यासी आया हुआ था उसने समझा कि यह सब जैनियों का ढोंग है वह तपसी मुनि के पीछे गुप्त रूप से फरने लगा । एक समय इधर तो मुनि जंगल में भ्रमन करता था उधर से एक सिंहनी आई उसके पंजा में कुछ पदार्थ था मुनि ने अपना पात्र सामने कर कहा माता कुछ भिक्षा देगी ? सिंहनी ने शान्तभाव से उस पदार्थ को मुनि के पात्र में डाल दिया प्रच्छनपने रहा हुआ सन्यासी सब हाल देख रहा था मुनि भिक्षा ले कर सूरिजी के पास आया और जिस पत्र को बन्ध कर सूरिजी को दिया था उसको खोलाया तो बड़ा ही आश्चर्य हुआ कि मुनि ने कैसा कठिन अभिग्रह किया है। उसी समय सन्यासी भी सूरिजी महाराज के पास आया और तपस्वी मुनि की खूब प्रशंसा करता हुआ कहाँ पूज्यवर ! जैन मुनि की तपस्या एवं अभिग्रह को मैं ढोंग समझता था पर यह मेरी भूल थी वास्तव में आप लोगों की सच्ची तपस्या है जिसका मनुष्य पर तो क्या पर क्रूरि वृति वाले तिर्यचों पर भी प्रभाव पड़ता है जो मैंने मेरी नजरों से देखा है कि एक सिंहनी ने तपस्वी मुति को शान्त वृति से भिक्षा दी है।। Jain Educado Cernational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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