________________
आचार्य सिद्धसरि का जीवन ]
[ ओसवाल संवत् ३८८
सूरिजी ने अपनी प्रोजस्वी भाषा द्वारा राजाओं की नीति और धर्म के विषय में खूब विवेचन के साथ उपदेश दिया । तत्पश्चात सौराष्ट्र की पवित्र भूमि पर आये हुए तीर्थों का वर्णन करते हुए फरमाया कि तीर्थाधिराज श्रीशत्रुजय एक महान् तीर्थ है प्रायः यह तीर्थशाश्वता है इस तीर्थ की सेवा उपासना आदि से लाखों करड़ों नहीं पर भूतकाल में अनन्त जीवों ने जन्ममरण के दुख मिटा कर अपना कल्याण किया है। और इस वल्लभी के लोग तो और भी भाग्यशाली है कि यह की भूमि शत्रुजय तीर्थ की तलेटी का धाम रहा था। कई मुनियों एवं संघपतियोंसे यह भूमि पवित्र हुई है । वल्लभी के लोगों के लिये श्रीशत्रुजय की भक्ति कर पुण्य संचय करना बिलकुल आसान भी है इत्यादि उपदेश दिया । जिसका प्रभाव यों तो सब लोगों पर हुआ ही या पर विशेष असर राजा शिलादित्य पर हुआ कि आपके हृदय में तीर्थ की सेवा भक्ति करने की भावना प्रबल हो आई । राजा ने किसी अन्य समय सूरिजी के पास आकर धर्म के विषय में अपने दिल की शंकाओं का समाधान कर सृरिजी महाराज के चरण कमल में जैनधर्म को स्वीकार कर लिया।
___ जब सूरिजी ने वहां से सिद्ध गिरी की यात्रा के निमित्त जाने का विचार किया तो और लोगों के साथ राजा शिलादित्य भी श्रीशत्रुजय की यात्रार्थ सूरिजी के साथ होगया सूरिजी ने यात्रा निमित्त छ री'का उपदेश दिया जिसको समझ कर राजा बहुत हर्ष एवं आनन्द में मग्न हो गया और सूरिजी के साथ पैदल 'छ री' पालता हुआ तीर्थधिराज श्री सिद्धगिरि पहुँच कर भगवान् श्रादीश्वर की यात्रा की । राजा को तीर्थयात्रा का इतना रंग लग गया कि सूरीजी के उपदेश से प्रतिज्ञा करली कि कार्तिक फाल्गुन और आसाद एवं तीन चातुर्मासि के और पर्युषणों के दिनों में यहां आकर मैं अष्टान्हिका महोत्सव करूँगा। तथा तीर्थ सेवा के लिये कुछ ग्राम भी भेंट किये । इतना ही क्यों पर सूरिजी के उपदेश से राजाशिलादित्य ने तीर्थ शत्रुजय का उद्धार भी करवाया । जो पांचवा आरा में यह पहला ही उद्धार था।
आचार्य श्री के उपदेश से राजा शिलादित्य जैनधर्म का परमोपासक बन गया । तीर्थयात्रा के पाश्चात् सूरिजी को विनति कर पुनः वल्लभी ले आये और श्रीसंघ के साथ राजा ने अत्याग्रह से चतुर्मास की विनती की इस पर सूरिजी ने भी लाभालाभ का कारण जान चतुर्मास वहीं कर दिया फिर तो था ही क्या यथा राजस्तथाप्रजा' राजा के साथ प्रजा ने भी यथासाध्य धर्माराधन कर अपना कल्याण किया। राजा शिलादित्य ने वल्लभी नगरी में भगवान आदीश्वर का एक विशाल मन्दिर बनाना प्रारम्भ कर दिया । सूरिजी महाराज के त्याग वैराग्यमय व्याख्यान ने जनता पर खूब ही प्रभाव डाला ! राजा के कुटम्ब में एक बूढ़ि राजपूत स्त्रि के एक लड़का था उसका भाव सूरिजी के पास दीक्षा लेने का हो गया पर बुढ़िया निराधार थी अतः पुत्र को आज्ञा देनी नहीं चाहती थी पर पुत्र को ऐसा तैसा वैराग्य नहीं था कि वह माता का मोह एवं रोकने से संसार में रह सके । अतः बुढिया ने राजा शिलादित्य के पास जा कर अपना दुःख निवेदन किया कि मेरे एकाएक पुत्र को बहका कर साधु लोग दीक्षा दे रहे हैं अतः आप साधुओं को समझा दें वरन् मैं आपधात कर मर जाऊंगी इत्यादि । २ तेषां श्री ककसरीणां, शिष्याः श्रीसिद्धसूरयः । वल्लभी नगरेजग्मुर्विहरन्तो मही तले ॥
नृपस्तत्र शिल्यादित्यः सूरिभिः प्रतिबोधितः । श्री शत्रुजयतीर्थेश उद्धारान् विदधे बहुन्। प्रति वर्ष पपणो, सचतुर्मासकत्रये । श्री शत्रुजयतीर्थ गात् यात्रायै नृप उत्तमः ॥ तत्रस्थैः सूरिभिः पौराः स्थापिता केऽपि सत्यथे। यत्तादृशानां निर्माणं लोकोपकृति हेतवे ॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.aneliterary.org
४०७