________________
वि. पू. १२ वर्ष ]
[ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
दूसग यह भविष्य में होनहार भी था और उसका विनय भक्ति भी अलौकिक था अतः मुनिधनदेव पर विशेष कृपा थी। सबसे पहले मुनिधनदेव को शास्त्रों का अध्ययन करवाना प्रारम्भ किया । मुनि धनदेव पर जैसे सूरिजी की अनुग्रह थी वैसे ही सरस्वती की भी पूर्णकृपा थी अतः मुनिधनदेव ने स्वल्प समयमें ही हस्तामलकी भांति सबशास्त्र कंठस्थ कर लिए साथ में व्याकरण न्याय तक छंद अलङ्क र काव्य आदि का भी अध्ययन कर लिया इतना ही क्यों पर आपने स्वमत के साथ परमत के तमाम साहित्य का अभ्यास भी कर लिया। ज्ञान के साथ साथ और भी तर्क वाद शास्त्रार्थ में भी निपुण हो गये और आपके धैर्यता, गम्भीर्यता, सहनशीलता, सौभ्यता क्षमता और उदारतादि गुण तो इस प्रकार के थे कि आपके गुणों का वर्णन करने में बृहस्पति भी असमर्थ था यही कारण है कि आपनेआचार्य देवगुप्तसूरि के दिल को सहज ही में अपनी ओर श्राकर्षित कर लिया जिसमे सूरिजी ने अपनी अन्तिमावस्था में चन्द्रावती के प्राग्वट नोढ़ा के महोत्सव पूर्वक अपना सर्व अधिकार मुनिधनदेव को देकर उसको सूरि पद से विभूषित कर आपका नाम सिद्धसूरि रखदिया।
आचार्य सिद्धसूरीश्वरजी महाराज महान् प्रभावशाली हुए आपका विहारक्षेत्र इतना विशाल था कि मरुधर लाट सौराष्ट्र कच्छ सिंध पचाल और पूर्व प्रान्त तक घूम घूमकर जैन धर्म का प्रचार किया करते थे ! यह बात तो स्वभाविक है कि जिस धर्म के उपदेशक जितने अधिक प्रदेश में विहार करेंगे उनका धर्म उतना ही अधिक क्षेत्र में प्रसरित हो जायगा । यदि वे प्राचार्य एकाध प्रांत में ही बैठ जातें नो वे इतने विशाल प्रदेश में जैनधर्म का प्रचार नहीं कर पाते। हाँ अनूकूलक्षेत्रों में सुख से रहना कौन नहीं चाहते हैं पर इस प्रकार साधु पौद्गलिक सुखों से मोहित हो जाते हैं तो उनका धर्म संसार में चिरकाल तक जीवित नहीं रहता है। जिस को आज हम प्रत्यक्ष में देख रहे हैं कि जिन सूरीश्वरों पर शासन की जुम्मेवारी है इतना ही क्यों पर वे खुद शासन सम्राट् जैनधर्म उद्धारक आदि उपाधियों से मान एवं सम्मान पाने को पुकार करते हैं पर में एक प्रान्त को छोड़ कर किसी अन्य प्रान्तों में विहार नहीं करने से ही धर्म का पतन हो रहा है। नये जैन बनाना तो दर किनार रहे पर पूर्वाचार्यों के बनाये हुए जैनों का रक्षण ही नहीं कर सकते है। दीक्षा के समय प्रत्येक साधु को रोहिनी आदि चार बहनों का उदाहरण सुनाया जाता है पर उसका अमल कौन करता है ? यही कारण है कि वर्तमान सूरीश्वर जैनधर्म के वर्द्धक पोषक ओर रक्षक नहीं पर भक्षक बन रहे हैं । हमारे पूर्वजो ने करोड़ों की तादाद में जैनों को इस विश्वास पर छोड़ गये थे कि हमारी संतान इनका पोषण कर वृद्धि करेगी पर हम ऐसे सपूत निकले कि करोड़ों की संख्या को घटा कर आज लाखों पर ले आये हैं । भविष्य के लिये ज्ञानी ही जानते हैं कि जैनधर्म का क्या हाल होगा ?
प्राचार्य श्री सिद्धसूरिजी महाराज अपने पूर्वजों की भाँति प्रत्येक प्रान्त में घूमते रहते थे और अपने साधु साध्वियों को भी प्रत्येक प्रान्त में विहार की आज्ञा दे दिया करते थे अतः श्रापश्री के शासन समय जैनधर्म का प्रचुरता से प्रचार हो रहा था।
एक समय आपश्री लाट प्रान्त में भ्रमण करते हुए सौराष्ट्र प्रान्त में पधार रहे थे। जब आपका शुभागमन वल्लभीपुरी की ओर हुआ तो वहाँ की जैन जनता में खूब हर्षानंद होने लगा। श्रीसंघ ने सूरिजी महाराज का सुंदर स्वागत किया । सूरिजी का प्रभावोत्पादक व्याख्यान इतना रोचक पाचक और असरकारी था कि जिसकी प्रशंसा सुनकर वहाँ का नरपति राजा शिलादित्य भी एक समय अपने मंत्री व कर्मचारियों के साथ सूरिजी के व्याख्यान में उपस्थित हुए। सूरिजी को वन्दन कर योग्य स्थान पर बैठ गया ।
Jain E
cato International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org