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आचार्य कक्कसरि का जीवन ]
[ ओसवाल संवत् ११२
भक्ति के साथ उन श्रमणों की पूजा किया करते थे ! उन्हें बड़े प्रभावशाली एवं प्रखर ज्ञानी जानकर महाराज चन्द्रगुप्त सदा उनके कृपाभिलाषी रहा करते थे और उन्हें बड़ी पूज्य दृष्टि से सम्मानित कर प्रायः देवताओं की पूजा और आराधना उन्हीं से कराया करते थे।"
३-मि० ई. थॉमस कहते हैं कि:-"महाराज चन्द्रगुप्त जैनधर्म के नेता थे। जैनियों ने कई शास्त्रीय ओर ऐतिहासिक प्रमाण द्वारा इस बात को प्रमाणित किया है । और आपका यह भी कथन है कि मौर्य चन्द्रगुप्त के जैन होने में शंकोपशंका करना ही व्यर्थ है, क्योंकि इस बात की साक्षी कई प्राचीन प्रमाणपत्रों में मिलती है और वे प्रमाणपत्र (शिलालेख ) निस्संशय प्राचीन हैं। महाराज चन्द्रगुप्त का पौत्र जो एक प्रबल सार्वभौम नपति था। वह यदि अपने पितामह के धर्म का परिवर्तन नहीं करता अर्थात् बोद्धधर्म अङ्गीकार नहीं करता तो उसको जैनधर्म का आश्रयदाता कहने में किसी प्रकार की अत्युक्ति न होती। मेगस्थनीज का कथन है कि "ब्राह्मणों के विरुद्ध जो जैनमत प्रचलित था उसी को चन्द्रगुप्त ने स्वीकार किया था।"
४-मि० विल्सन साहब कहते हैं कि:--"यदि मुझे जैनधर्मावलम्बियों की समालोचना करनी होगी तो भारतवर्ष पर आक्रमणकर्ता मसीडोनियन अलेकजेण्डर तक की ऐतिहासिक बातें की खोज करनी पड़ेंगी। अर्थात् मेगस्थनीज ने जैनियों का वर्णन किया है “एरियन" 'स्बों' इन प्रसिद्ध प्रन्थकारों ने भी पूर्ण उल्लेख किया है । और मेगस्थनीज लगभग उसी समय में (अलेकजेण्डर के समय में ) भारतवर्ष में आया था।"
५-प्रसिद्ध इतिहासज्ञ और पुरातत्ववेत्ता मि० बी. लुइसराइस साहब कहते हैं किः-- "चन्द्रगुप्त के जैन होने में कोई सन्देह नहीं है और यह भी कहते हैं कि "निस्संदेह चन्द्रगुप्त भद्रबाहु के समकालीन थे।"
६--एन्सोयक्लोपीडिया आफ रिलीजन में लिखा हुआ है कि:--"वि० पू० सं. २९७ में संसार से विरक्त होकर चन्द्रगुप्त ने मैसूर प्रान्तस्थ श्रवणबैलगुल में बारह वर्ष तक जैनदौक्षा से दीक्षित होकर तपस्या की और अन्त में तप करते हुए स्वर्गधाम को सिधारे ।'
७-मि० जार्ज सी० एम० बर्डवुड लिखते हैं कि:-"चन्द्रगुप्त और बिन्दुसार ये दोनों बौद्धधर्मावलन्बी नहीं थे। किन्तु जैनधर्मोपासक थे, हाँ चन्द्रगुप्त के पौत्र अशोक ने जैनधर्म को छोड़ कर बौद्धधर्म स्वीकार किया था ।।
The venerable Ascetic Mahavira's Parents were worshipers of Parsya and Followers of the Sraimanas.
S. B. E. Vol 22 Kalpa sutra.
B. K. II Lc 15. P. 191. अर्थात्-- भगवान महावीर के मातापिता पार्श्वनाथ के उपासक थे और श्रमणों के अनुयायी थे। उपरोक्त उदाहरणों से यह स्पष्ट सिद्ध होता है कि मौर्य सम्राट्चन्द्रगुप्त जैनधर्मोपासक था यों तो सम्राट हमेशा आत्म भावना के साथ जैनधर्म की आराधना करता ही था पर अपनी पिछली अवस्था में तो दूसरी दूसरी खटपटें छोड़कर निर्वृत्ति पथ का पथिक बन गया था
L.
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