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वि० पू० २८८ वर्ष ]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
ही पहला व्यक्ति नहीं हूँ।" मि: राईस कि जिन्होंने श्रवण वेलगोल के शिलालेखों का अध्ययन किया है पूर्ण रूप से अपनी राय इसी पक्ष में देते हैं कि मौर्य चन्द्रगुप्त जैनी था
डाक्टर स्मिथ अपनी (Oxford History of India नामक पुस्तक के ७५, ७६ पृष्ठ में लिखते हैं कि "चन्द्रगुप्त मौर्य की घटना-पूर्ण राज्यकाल किस प्रकार समाप्त हुआ इस बात का उचित विवेचन एक मात्र जैन कथाओं से ही जाना जा सकता है । जैनियों ने सदैव उक्त मोर्य सम्राट को विम्बसार (अणिक) के सदृश जैन धर्मावलम्बी माना है और उनके इस कथन को असत्य समझने के लिए कोई उपयुक्त कारण नहीं है। यह बात भी सर्वथा सत्य है कि शैशुनाग, नंद और मौर्यवंश के राजाओं के समय मगध देश में जैन धर्म का प्रचार प्रचुरता से था। चन्द्रगुप्त यह राजगाद्दी एक चतुर ब्राह्मण की सहायता से प्राप्त की थी। यह बात इस बात में बाधक नहीं होती कि चन्द्रगुप्त जैनी था मुद्राराक्षस नामक नाटक में एक जैन साधु का भी उल्लेख है । यह साधु नंदवंशीय एवम् पीछे से मौर्यवंशीय राजाओं के राक्षस मंत्री का खास मित्र था।"
Mo. H. L. O. Garrett M. A. L. E. S in his ensay "Chandragupta Maurya" says --"Chandragupta who was said to have been a Jain by religion, went on a pilgrimage to the South of India at the time of a great Finnc. There he is said to have starved himself to death. At any rate he coased to reigo about 293 B.C."
१-सुप्रसिद्ध इतिहासज्ञ मि विन्सेण्ट ए. स्मिथ भारत का प्राचीन इतिहास' (ilistory of India) की तृतीयावृत्ति पृष्ठ १४६ में लिखते हैं कि :- 'जैन कथाओं में उल्लेख मिलता है कि चन्द्रगुप्त मौर्य जैन था । जब बारह वर्ष का दुष्काल पड़ा तब चन्द्रगुप्त अन्तिमश्रुतिकेबली भद्रबाहु के साथ दक्षिण की ओर चला गया और मैसूर के अन्तर्गत श्रवणबेलगोला में-जहां अब तक उसके नाम की यादगार है-मुनि ने गिरि पर रह कर और अन्त में वहीं पर उसने उपवास पूर्वक प्राण त्याग दिये । मैंने अपनी पुस्तक की द्वितियावृत्ति में इस कथा को रद्द कर दिया था और बिलकुल कल्पित खयाल किया था, परन्तु इस कथा की सत्यता के विरुद्ध में जो शंकायें हैं, उस पर पूर्णरूप से विचार करने से अब मुझे विश्वास होता है कि यह कथा सम्भव तया सच्ची हैं । चन्द्रगुप्त ने वास्तव में राजपाट छोड़ दिया होगा और वह जैन साधु हो गया होगा । निस्संदेह इस प्रकार की कथायें बहुत कुछ समालोचना के योग्य हैं और लिखित साक्षी से ठीक २ पता नहीं लगता, तथापि मेरा वर्तमान में यह विश्वास है कि यह कथा सत्य पर निर्धारित है और इसमें सचाई है । 'राइस साहब' ने इस कथा की सत्यता का अनेक स्थलों पर बड़े जोर से समर्थन किया है। हाल में "शिला-लेखों से मैसूर तथा कुर्ल" नामक पुस्तक में इसका जिक्र किया है।"
२-मेगस्थनीज ने जो सेल्युकस की ओर से चन्द्रगुप्त के दरबार में राजदूत था, राज्यस्थान की बहुत सी बातें जानकर अपने इतिहास में उसका बड़ा विस्तृत वर्णन किया है । उस वर्णन में जहाँ भारतीय ऋषियों का उल्लेख किया गया है वहाँ श्रमणों का भी वर्णन आया है । दूसरी जगह जहाँ उन्होंने भारतीय दार्शनिकों की चर्चा की है वहाँ श्रमणों का भी उल्लेख किया है। उनका कथन है कि ये श्रमण, ब्राह्मणों तथा बोद्धों से भिन्न थे । इनका घनिष्ठ सम्बन्ध महाराज चन्द्रगुप्त से था। वे अपने राजनीतिक विषय में जहाँ तहाँ दूतों को भेज कर उन श्रमणों की सम्मति लिया करते थे । वे स्वयं अथवा दूसरों द्वारा बड़ी विनय और
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