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आचार्य ककसरि का जीवन ]
[ ओसवाल संवत् ११२ मौर्यसम्राट चन्द्रगुप्त जैनधर्मावलम्बी था, इस विषय में विद्वानो की
सम्मतियाँ सम्राट् चन्द्रगुप्त का सच्चा ऐतिहासिक वर्णन कई वर्षों तक गुप्त रहा। यही कारण था कि कई लोग चन्द्रगुप्त को जैनी मानने में संकोच किया करते थे। और कई तो साफ इन्कार करते थे कि चन्द्रगुप्त जैनी नहीं था । पर अब यूरोपीय और भारतीय पुरातत्वज्ञों की शोध और खोज से तथा ऐतिहासिक साधनों से सर्वथा सिद्ध तथा निश्चय हो चुका है कि चन्द्रगुप्त मोर्य जैनी था । कतिपय विद्वानों की सम्मतियों का यहां लिखा जाना युक्तियुक्त और न्यायसंगत होगा।
चन्द्रगुप्त के जैनी होने के विशद प्रमाण राय बहादुर डाक्टर नरसिंहाचार्य ने अपने "श्रवण वेलगोल" नामक पुस्तक में संग्रह किये हैं । यह पुस्तक अग्रेजी भाषा में लिखी गई है । जैन गजट आफिस, ८ अस्मन कुवेल स्ट्रीट, मदरास के पते से मंगाने पर मिल सकती है इस पुस्तक में चंद्रगुप्त का जैनी होना प्रमा णित है। अशोक भी अपनी तरुण व्यय में जैनी होना सिद्ध है । इन सब का वर्णन श्रवण वेलगोल के शिलालेखों (Lariy faith of Ashok Jainism by Dr. Thomas South Indian Jainism I[ page 39). एवं राजतरंगणी और आइनई अकबरी में मिल सकता है। पाठकों को चाहिए कि उपरोक्त पुस्तकें मंगा कर इन बातों से जरूरी जान कारी प्राप्त करें। आगे और भी देखिये, भिन्न भिन्न विद्वानों का क्या मत है ?
डाक्टर ल्यूमन Vienna Oriental Journal VII 382 में श्रुतकेवलीभद्रबाहुस्वामी और चन्द्रगुप्त की दक्षिण की यात्रा को स्वीकार करते हैं।
डाक्टर हनिले Indian Antio!!uary XXI 5960 में तथा डाक्टर टामस साहब अपनी पुस्तक Jainism of the Dariy Filt of Asoka page 23 में लिखते हैं कि “चन्द्रगुप्त एक जैन समाज का योग्य व्यक्ति था । जैन ग्रंथकारों ने एक स्वयं सिद्व और सर्वत्र विख्यात बात का वर्णन करते हुए उपरोक्त कथन को भी लिखा है जिसके लिए किसी भी प्रकार के अनुमान का प्रमाण देने की आवश्यकता ज्ञात नहीं होती है । इस विषय में लेखों के प्रमाग बहुत प्राचीन हैं तथा साधारण तया संदेह रहित हैं। मैगस्थनीज ( जो चन्द्रगुप्त की सभा में विदेशी दूत था ) के कथनों से भी यह बात मलकती है कि चन्द्रगुप्त ब्राह्मणों के सिद्धान्तों के विपक्ष में और श्रमणों (जैनमुनियों) के धर्मोपदेश को ही स्वीकार करता था।" डॉ० टामस साब अपने लेखों में यह सिद्ध करते हैं कि चन्द्रगुप्त मौर्य के पुत्र और बिन्दुसार और पौत्र अशोक भी जैन धर्मावलम्बी ही थे। इस बात को पुष्ट करने के लिये डाँ० साहब ने जगह जगह मुद्राराक्षस, राज तरं। गिणी और श्राइनई अकबरी के प्रमाण दिये हैं ।
श्रीयत का प्र० जायसवाल महोदय Journal or the Beher and Orissa Research Socicty Vollime !!! में लिखते हैं--- "प्राचीन जैन ग्रंथ और शिलालेख चन्द्रगुप्त मोर्य को जैन राजर्षि प्रमाणित करते हैं। मेरे अध्ययन ने मुझे जैन प्रन्थों की ऐतिहासिक वार्तात्रों का आदर करना अनिवार्य कर दिया है । कोई कारण नहीं कि हम जैनियों के इन कथनों को कि चन्द्रगुप्त ने अपनी प्रौढ़ा अवस्था में राज्य को त्याग कर जैन दीक्षा ले मुनिवृति में ही मृत्यु को प्राप्त हुए, न माने इस बात को मानने वाला मैं
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