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आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ]
३ - हेमवंत पट्टावली में लिखा है कि
"मधुरानिवासी ओसवंशशिरोमणि श्रावकपोलाक ने गन्धहस्ती विवरणसहित उन सर्वसूत्रों को तड़पत्रादि पर लिखाकर पठनपाठन के लिये निर्मन्थों को अर्पण किया । इस प्रकार जैनशासन की उन्नति करके स्थविर आर्यस्कन्दिल विक्रम संवत् २०२ मथुरा में ही अनशन करके स्वर्गवासी हुये "
[ ओसवाल संवत् ४५२
४ --पन्यासजी श्री कल्याण विजयजी महाराज स्वरचित वीर निर्वाण संवत् और जैनकाल गणना नामक प्रन्थ के पृष्ट १८० पर लिखते हैं कि श्रार्य स्कन्दिल के नायकत्व में माथुरी वाचना वीर वि० सं० ८२७ से ८४ ० के बीच में हुई ।
उपरोक्त चार स्कन्दिलाचार्यों के अन्दर पहिले नम्बर के स्कन्दिलाचार्य युगप्रधान पट्टावली के हैं । आपका समय संवत् वी० नि० संवत ३०६ से ४१४ का है अतः न तो बृद्धबादी की दीक्षा आपके हाथों से हुई और न माथुरी वाचना का सम्बन्ध आपके साथ है
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अब रहे शेष तीन स्कन्दिलाचार्य - इन तीनों के साथ माथुरी वाचना का सम्बन्ध होने पर भी समय पृथक २ बतलाया है। जिसमें पन्यासजी श्री कल्याणविजयजी महाराज ने स्कन्दिलाचार्य द्वारा माथुरी वाचना का समय वी० नि० सं० ८२७ से ८४० का स्थिर किया है और इस विषय की पुष्टि करने में आपने युक्ति एवं प्रमाण भी महत्त्व के दिये हैं। अब हम पन्यासजी के कथनानुसार आर्य स्कन्दिल का समय विक्रम की चौथी शताब्दी का मान लें तो वृद्धवादी की दीक्षा स्कन्दिलाचार्य के हाथों से नहीं हुई हो या वृद्धवादी को दीक्षा देने वाले स्कन्दिलाचार्य माधुरी बाचना के स्कन्दिलाचार्य से पृथक हों। अगर स्कन्दिलाचार्य और वद्धवादी इन दोनों आचार्यों को विक्रम की चौथी शताब्दी के आचार्य मानलें तो वृद्धवादी के हरत दीक्षित शिष्य सिद्धसैन दिवाकर का समय नहीं मिलता है। कारण सिद्धसेनदिवाकर को संवत्सर प्रवर्तक विक्रम के समकालीन बतलाया है। सिद्धसेनदिवाकर ने विक्रम को जैन बनाया तथा श्रावंती पार्श्वनाथ को प्रगट किया आदि अनेक घटनायें विक्रम के साथ घटी यह सबकी सब कल्पित ठहरेंगी ।
जिस विक्रम के साथ सिद्धसेनदिवाकर का सम्बन्ध बतलाया गया है उस विक्रम को संवत्सर प्रवर्तक विक्रम नहीं पर विक्रम की चौथी शताब्दी का एक दूसरा ही विक्रम मानलें तब जाकर इन सबका समाधान हो सके पर ऐसा करने से हमारे पूर्वाचार्यों के बनाये चरित्र प्रबन्ध और पट्टावलिये सबके सब कल्पित हो जायेंगे । कारण, आय स्कन्दिल, वृद्धवादी, सिद्धसैन दिवाकर और राजा विक्रम को वीर निर्वाण के बाद पांचवीं शताब्दी के माने हैं वे सब नौवीं शताब्दी के मानने पड़ेंगे । अतः इनके समाधान के लिये विशेष शोध खोज की आवश्यकता है ।
३- तीसरे स्कन्दिलाचार्य का वर्णन हेमवन्त पट्टावली में आया है। आपके समय के लिये लिखा है कि वि० सं० २०२ में स्कन्दिलाचार्य का स्वर्गवास मथुरा में हुआ अतः आप विक्रम की दूसरी शताब्दी के आचार्य थे । विशेषता में पट्टावलीकार लिखते हैं कि मथुरा में ओसवंशीय पोलाक श्रावक ने गन्धहस्ती विवरण सहित आगम लिखा कर जैन श्रमणों को पठन पाठन के लिये अर्पण किये। इससे यह भी पाया जाता है कि उस समय पूर्व श्रमणों को आगम वाचना मिल गई थी इतना ही क्यों पर उस समय
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