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________________ वि० [सं० ५२ वर्ष ] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास आगम ठीक व्यवस्थित रूप में हो गये थे कि जिसको लिखा कर श्रावक लोग साधुओं को पठन पाठन के लिये भेंट करते थे । पट्टावल्यादि प्रन्थों से यह स्पष्ट सिद्ध हो चुका है कि आर्य वज्रसूरि के समय बारह वर्षीय महा भयंकर दुष्काल पड़ा था और उस दुष्काल में बहुत से जैनश्रमण अनशन कर स्वर्ग पहुँच गये थे शेष रहे साधुओं को आहार पानी के लिये बड़ी मुसीबतें उठानी पड़ती थीं। इधर उधर भटकना पड़ता था । अतः आगमों का पठन पाठन बन्द सा हो जाना कोई बड़ी बात नहीं थीं । आर्यवज्र का स्वर्गवास वि० सं० ११४ में हो गया था थोड़े ही समय में एक दुकाल और पड़ गया । उसकी भयंकरता ने तो जैसे जनसंहार किया वैसे श्रमण संहार भी कर दिया। दुकाल के अन्त में आचार्य यक्ष देवसूरि ने बचे हुए साधु साध्वियों को एकत्र किये तो केवल ५०० साधु और ७०० साध्वियां ही उस दुकाल से बच पाये थे । यक्षदेवसूरि ने उन साधु साध्वियों की फिर से व्यवस्था की । उस समय आर्य वज्रसैन ने चन्द्र नागेन्द्रादि को दीक्षा देकर उनको पढ़ाने के लिये श्राचार्य यक्षदेवसूरि के पास आये । चारों शिष्यों का ज्ञानाभ्यास चल ही रहा था कि बीच में ही वज्रसेनसूरि का स्वर्गवास होगया उनके शिष्यों की व्यवस्था का कार्य भी यक्ष देवसूरि के सिर पर आ पड़ा इत्यादि । इस कथन से पाया जाता है कि उस समय जैन श्रमण संघ को आगम वाचना की अत्यधिक जरूरत थी और उस समय बाचना भी अवश्य हुई थी यदि उस समय वाचना नहीं हुई होती तो उस समय से करीब २०० वर्ष बाद स्कन्दिलाचार्य का समय आता है वहां तक जैन श्रमणों को न तो ज्ञान रहता न दुकाल में ज्ञान भूलता और न स्कन्दिलाचार्य के समय वाचना की ही जरूरत रहती । कई स्थानों पर स्कन्दिलसूरि के समय भी बारहवर्षीय दुष्काल पड़ना लिखा है । यदि आर्य स्कन्दल व के समसामयिक होने के कारण ही स्कन्दिलाचार्य के समय बारह वर्षीय दुर्भिक्ष का उल्लेख किया हो तब तो कुछ मत भेद नहीं है पर जब वज्रसैनसूरि के बाद दौसौ वर्ष में स्कन्दिलाये हुये माने जाय तब तो स्कन्दिलाचार्य के समय का दुकाल वज्रसेनाचार्य के समय के दुकाल से पृथक मानना होगा और दुकाल में २०० वर्ष का अन्तर है तो आगम वाचना भी पृथक माननी पड़ेगी तथा वाचना पृथक हुई तो उन वाचनाओं के देने वाले आचार्य भिन्न २ मानन स्वभाविक है। स्कन्दिलाचार्य के समय का दुकाल के अन्त में स्कन्दिलाचार्य ने वाचना दी वैसे ही वज्रसेनाचार्य के समय का दुकाल के अन्त में श्राचार्य यदेवसूरि ने वाचना दी थी कारण, उस समय एक यक्षदेवसूरि ही अनुयोगधर थे और यह बात प्राचीन प्रत्थों से साबित भी ठहरती है। कारण, उस समय के दुकाल के अन्त में बचे हुये ५०० साधु ७०० साध्वियों की व्यवस्था आप श्री ने ही की थी। जब व्यवस्था की तो वाचना भी अवश्य दी होगी। साथ में यक्षदेवसूरी ने बज्रसेनाचार्य के शिष्य चन्द्रनागेन्द्रादि को वाचना देने का भी उल्लेख मिलता है अतः वज्रसेनाचार्य के समय वाचना अवश्य हुई थी और उस वाचना के नायक आचार्य यक्ष देवसूरि ही थे । जब स्वल्प समय में दो दर्फे भयंकर दुकाल पड़ा उसमें साधुओं का पठन पाठन बन्द एवं ज्ञान विस्मृत होजाना स्वभाविक बात है । इस हालत में उन साधुओं को २०० वर्ष तक वाचना नहीं मिलना यह बिल्कुल असम्भव सा प्रतीत होता है । ४- चौथा स्कन्दिलाचार्य --- प्रभाविक चरित्र वृद्धवादी प्रवन्ध से स्कन्दिलाचार्य को विद्याधर कुल [ श्री वीर परम्पराary.org Jain Education International ४५६ For Private & Personal Use Only
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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