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आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ]
[ओसवाल संवत् ४५२
(शाखा ) के पादलिप्तसूरि के परम्परा का प्राचार्य कहा जा सकता हैं । नंदी सूत्र की टीका में प्राचार्य मलयागिरि ने स्कन्दिलाचार्य को सिंहवाचक सूरि के शिष्य कहा है जैसे "ताम् स्कन्दिलाचार्यान् सिंहवाचक सूरि शिष्यान्" पर आगे चल कर उसी टीका में सिंहवाचक को ब्रह्मद्वीपिका शाखा के आचार्य लिखा है । तब स्कन्दिलाचार्य थे विद्याधर शाखा के आचार्य । शायद् युगप्रधान पट्टावली में सिंहवाचक के बाद नागार्जुन का नाम आता है और स्कन्दिलाचार्य नागार्जुन के समकालीन होने से टीका कारने स्कन्दिलाचार्य को सिंहवाचक के शिष्य लिखा दिया होगा । पर वास्तव में स्कन्दिलाचार्य विद्याधर शाखा के आचार्य हैं स्कन्दिलाचार्य के समय के लिये पट्टावलियों में लिखा है कि वि० सं० ११४ में आर्यवज्र का स्वर्गवास बाद १३ वर्ष आयंरक्षित २० पुष्पमित्र ३ वज्रसेन ६९ आर्य नागहस्ती ५९ रेवतीमित्र ७८ ब्रह्मद्वीप सिंह एवं कुल ३५६ वर्ष व्यतीत होने पर आर्य स्कन्दिल युगप्रधान पद पर आरूढ़ हुये और १४ वर्ष तक युगप्रधान पद पर रहे। इस समय के बीच माथुरी वाचना हुई। ऐसी पन्यासजी की मान्यता है पर ब्रह्मद्वीपसिंह के बाद तो नागार्जुन का नाम आता है और वे ७८ वर्ष युगप्रधान पद परहै पर स्कन्दिलाचार्य का नाम युगप्रधान पट्टावली में नहीं हैं शायद नागार्जुन के समकालीन कोई स्कन्दिलाचार्य हुए होंगे ?
माथुरी वाचना के साथ ही साथ वल्लभी नगरी में वल्लभी वाचना भी हुई थी माथुरी वाचना के नायक स्कन्दिलाचाय थे तब वल्लभी वाचना के नायक थे नागार्जुनाचार्य । यह दोनों प्राचार्य समकालीन थे और इनके समय वड़ा भारी दुकाल भी पड़ा था जैसे आर्यभद्रवाहु और आर्यवत्रसेन के समय में दुर्भिक्ष पड़ा था और जैसे उन दोनों दुर्भिक्षों के अन्त में आगम वाचना हुई थी उसी प्रकार इस समय भी आगम वाचना हुई।
श्राचार्य भद्रेश्वरसूरि ने अपने कथावली प्रन्थ में लिखा है :
"अस्थि महूराउरीए सुयसमिद्धो खंदिलो नाम सूरि, तहा बलहिनयरीए नामज्जुणो नाम सूरि । तेहि य जाए वरिसिए दुक्काले निव्वउ भावंओवि फुल्ठिं (१) काऊण पेसिया दिसोदिसिं सावो गमिउ च कहवि दुत्थं ते पुणो मिलिया सुगाले, जाव सज्झायंति ताव खंड्डु खुरुडीहूयं पुव्वाहियं । तओ मा सुयवोच्छिती होइ (उ) ति पारद्धो सूरीहिं सिद्धंतुधारो। तत्थवि जं न वीसरियं तं तहेव संठवियं । पम्हुट्ठट्ठाणे उण पुव्यावरावांतसुत्तत्थाणुसारओ कया संघउणा ।"
आचार्य हेमचन्द्रसूरि अपने योगशास्त्र की टीका में लिखते हैं :
"जिन वचनं च दुष्पमाकालवशादुच्छिन्नप्रायमिति मत्वा भगवद्भिर्नागार्जुनस्कन्दिलाचार्यप्रमृतिभिः पुस्तकेषु न्यस्तम् ।"
श्राचार्य मलयागिरिजी अपने ज्योतिषकरण्डक टीका में लिखते है :
"इह हि स्कन्दिलाचार्यप्रवृतौ दुष्पमानुभावतो दुर्भिक्ष प्रवृत्या साधूनां पठनगुणनादिकं सर्वमप्यनेशत् । ततो दुर्भिक्षातिक्रमे सुभिक्षप्रवृत्तौ द्वयोः संघयोर्मेलापकोऽभवत् तद्यथा-एको बलभ्यांभेको मथुरायाम् । तत्र च सूत्रार्थसंघटने पारस्परवाचनाभेदो जातः विस्मृतयोहि क्षार्थयोः स्मृत्वा संघटने भवत्यवश्यं वाचनाभेदो न काचिदनुपपत्तिः । आचार्य स्कन्दिलसरि ]
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