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वि० सं० २८२-२९८ वर्ष
[ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
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भुवन सदृश इन जिनालयों की न जाने क्या दशा होगी अतः आप कोई ऐसा उपाय बतलावें कि संघ की रक्षा हो इत्यादि ? शासन देवी ने कहा कि मैं आपको एक उपाय बतलाती हूँ कि मरुस्थल में नारदपूरि ( नाडोल ) नगरी में आचार्य मानदेवसूरिजी विराजते हैं उनके ब्रह्मचर्य एवं तपश्चर्या का इतना प्रभाव है कि कैसा ही उपद्रव क्यों न होवे पर उनके पधारने से सब शान्ति हो जाती है अतः तुम मानदेवसूरि को लाने का प्रयत्न करो पर मेरा पहले का कहना ध्यान में रखना कि तीन वर्षों के बाद इस नगरी का ध्वंश होने वाला है जो लोग इस नगरी को छोड़कर अन्यत्र चले जायेंगे वह बच जायगे इत्यादि कह कर देवी तो अदृश हो गई !
___ श्रीसंघ ने आचार्य मानदेवसूरि को बुलाने के लिये विचार किया पर ऐसी विकट स्थिति में घर कुटुम्ब को छोड़ कर जावे कौन ? आखिर बहुत कहा तब संघ सेवा को लक्ष में रख एक वरदत्त नाम का श्रावक ने स्वीकार किया अतः संघ ने एक विनतिपत्र लिख कर वरदत्तको नारदपुरी भेजा और वह क्रमशः चलता हुआ नाडोल आया भगवान नेमिनाथ के मंदिर में मानदेवसूरि विराजते थे समय मध्यान्ह का था। सरिजी ध्यानमें मग्न थे उस समय हमेशा की भाँति जया विजया दोनों देवियों सूरिजी को वंदन करने के लिये आई थी और वे एकान्त चूणा में बैठी हुई सूरिजीके ध्यान की राय देखरही थीं। उसी समय वरदत्त निसीही पूर्व मन्दिरमें प्रवेश किया और जहाँसूरिजी थे वहां जाकर एक कोने में बैठी हुई दो युवा एवं स्वरूपवान ओरतोंको देखी तो वरदत्त का दिलबदल गया और सोचनेलगा कि हमारे वहाँ की शासनदेवी हमको धोका दिया है क्या ऐसे ढूंगी एवं व्यभिचारी मनुष्यों से उपद्रव कभी शान्त हो सकता है ? इस विकाल की टाइम में साधुओं के पास एकान्त में युवा ओरतें क्यों शायद हमको देख लूंगी महात्मा ने ध्यान लगा लिया होगा इत्यादि कई विकल्प करने लगा । गुरु ध्यान न पारें वहाँ तक बाहर बैठ गुरू का छेद्र देखने लगा ! इधर तो गुरू ने ध्यान पाग उधर वरदत्त आन्दर आने लगा तो जयादेवी उसकी दुष्टता देख उसको जकड़ कर बांध लिया और कहने लगी कि रे दुष्ट तूं ऐसे प्रभावशील आचार्य के लिये इस प्रकार दुष्ट परिणाम कर लिया परन्तुअरे विवेक शून्य तुझे दीखता नहीं है कि हमारे पैर भूमि से चार अंगुल ऊँचे हैं हमारे नेत्र अवल हैं हमारे गले की पुष्पमाला विकशित है इससे हम मनुष्य नहीं पर देवांगना है और गुरू भक्ति से प्रेरित हो हमेशा बन्दन करने को आया करती हैं। वरदत्त सुनकर लज्जित हुआ सूरिजी के कहने से देवियों ने उसको बन्धन मुक्त किया। वरदत्त ने श्री. संघ का विज्ञापन पत्र सूरिजी को दिया सूरिजीने कहा कि संघ की आज्ञा प्रमाण करना मेरा कर्त्तव्य है पर
+देवी प्राहाथ नङ्कले मानदेवाख्यया गुरुः ! श्रीमानस्ति तमानाय्य तत्पदक्षालनौदके !! ४३
आवासानभिपिंचध्वं यथा शाम्यति डामरम्! एव मुक्त्वा तिरोधत्त श्रीमच्छासन देवता!! ४४ श्रावकं वीरदां ते प्रैषुर्नड्कूल पत्तने ! विज्ञप्तिकां गृहीत्वा च स तत्र क्षिप्रमागमत् !! ४५ भूप्रणामाश्रयं दृष्ट्वा व्यधान्नधिकी तदा! मध्यान्हे सरि पादारच मध्ये ऽपवरकं स्थिताः!! ४६ उपाविशन् शुभे स्थाने स्थाने स ब्रह्मसंविदाम ! पंर्यकासनमासीना नासाग्रन्यस्तदृष्टयः !! ४७ ईक्ष स्वानिमिषे दृष्टी चरणावक्षितिस्पृशौ ! पुष्प माला न च म्लाना देव्यावावांन लक्षसे !! ५८ श्री शान्तिनाथ पार्श्वस्थ प्रभु स्मृति पवित्रितम् ! गर्भित तेन मंत्रेण सर्वाशिवनिषेधिना !! ७२ श्री शान्ति स्तवनाभिख्यं गृहीत्वा स्तवन वरम् । स्वस्थो गच्छ निज स्थानमशिवं प्रशमिष्यति !! ७३ कोपि कुत्रापि चायातः प्रगम्य जनमध्यतः! गते वर्षे त्रये भग्ना तुरुष्कः सा महापूरी:!! ७४ सूरिः श्रीमानदेवाख्यः शासनस्य प्रभावना ! विधायानेकशी योग्यं शिष्षं पट्टे निवेश्यच !! ८० प्र.च०
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[ बरदत्त के बुरे परिणामों का फल
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