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________________ आचार्य सिद्धसरि का जीवन ] [ओतवाल संवत् ६८२-६९८ किया कि जिससे खुश होकर आचार्य श्री ने अपने पट्ट पर मुनि मानदेव को प्राचार्य बना कर अपना सर्वाधिकार मानदेवसूरि को सौंप दिया। १९ श्राचार्य मानदेवसूरि बालब्रह्मचारी एवं उत्कृष्ट तपस्वी होने के कारण जया और विजय दो देवियां आपके चरण कमलों में हमेशा बन्दन करने को आया करती थी कई पट्टावलियों में लक्ष्मी और सरस्वती इन दो देवियों के नाम लिखा है परन्तु ऐसे महापुरुषों के दो चार नहीं पर इनसे भी अधिक देवदेवियाँ सेवा करते हों तो क्या आश्चर्य की बात है । गुणी जन सर्वत्र पूजनीय होते हैं। प्राचार्य मानदेवसूरि अपने शेष जीवन में ६ विगइ के त्याग कर दिया था प्रायः आप अज्ञातकुल की गौचरी करते थे और पिछली अवस्था में आप नारदपुरी (नाडोल ) में भगवान नेमिनाथ के चैत्य (मन्दिर) में ही विराजते थे इससे पाया जाता है कि चैत्य में सुविहित आचार्य भी ठहरते थे और साधु चैत्य में ठहरें तो कोई दोष भी नहीं है दोष है। ममता एवं सावध कार्य करने का इस विषय में हम आगे एक चैत्यवास प्रकरण स्वतंत्र रूप में लिखेंगे। पंजाब की सरहद पर अलकापुर की सदृश तक्षशिलापुरी ॐ नगरी थी वहां जैनों के ५०० मन्दिर थे और लाखों भावुक धनधानपूर्ण और कुटुम्ब परिवार से समृद्ध श्रावक लोग बसते थे समय समय पर जैनाचार्यों का शुभागमन भी हुआ करता था उसमें भी उपकेशगच्छाचार्यों का विशेष पधारना होता था जब वे पंजाब में आते थे तब तक्षशिला की स्पर्शना अवश्य किया करते थे। कहा है कि सदैव एक सी स्थिति किसी की भी नहीं रहती है एक समय सुवर्णमय द्वारामति स्वर्ग समान शोभा देती थी पर दिन आने पर वह जल कर भस्मीभूत हो गई थी यही हाल आज तक्षशिला का हो रहा है जहाँ देखो मरकी का उपद्रव से पशुओं की भाँति मरे हुए मनुष्य की लाशें नजर आ रही थीं पशु पंखी तथा राक्षसों को खून और मांस से तृप्ती हो रही थी इस उपद्रव ने तो चारों ओर त्राहि त्राहि मचादी थी इतना ही क्यों पर मन्दिरों का भी पता नहीं कि वहाँ पूजा होती है या नहीं एक समय संघ अग्रेश्वर मन्दिर में एकत्र होकर विचार किया कि सुख शान्ति के दिनों में अधिष्टायिक एवं शासन देव देवियां आते जाते और दर्शन भी देते पर इस महान संकट के समय सब देव देवी कहां चले गये कि संघ के अन्दर इस प्रकार संकट, मन्दिरों की पूजा का पता नहीं जिसमें इतनी इतनी प्रार्थना कराने पर प्रसाद चढ़ाने पर भी कोई नहीं आता है इसका कारण क्या होगा ? इस प्रकार संताप करते हुए संघ को देख शासन देवी अदृश्य रहकर बोली कि आप इस प्रकार खेद क्यों करते हो इसमें शासन देव देवियों का कोई भी दोष नहीं है कारण दुष्ट मलेच्छों के देवों ने इस प्रकार क्रूरता की है कि उसके सामने हमारी कुछ चल नहीं सकती है ! जैसे इज्जतहीन नंगे लुच्चों के सामने इजत दार साहूकारों की नहीं चलती है पर मैं आपको यह भी कह देती हूँ कि इस नगरी का तीन वर्षों के बाद भंग होगा अतः इस उपद्रव से बच कर तुम यहां से चले जाना ? इस पर संघ ने कहा कि तीन वर्ष बाद रहेगा कौन ? यदि इस उपद्रव से बचने का कोई उपाय नहीं मिला तो सब लोग स्वत्म हो जायेंगे और देव • भथ तक्षशिलापुर्या चैत्य पंचशती भृति ! धर्म क्षेत्रे तदा जज्ञे गरिष्टमशिवं जने !! २७ अकाल मृत्यु संयाति रोगै लोकि उपद्रतः ! जज्ञे यत्रौषधं वैद्यो न भुगुण हेतवे !! २८ प्रति जागरणे ग्लानं देहस्यह प्रयाति यः! गृहागतः स रोगेण पात्यते तल्प के दूतम !! २९ स्वननः कोपि कसायपि नास्तीह समये तथा ! आनंद भैरवारावरौद्ररुपाभवत्पुरी !! ३० प्र०न. तक्षाशिला में उपद्रव्य और शन्तिस्तव ] ७०३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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