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________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ४५२ का चूर्ण चूर्ण कर डालना , कारण, मेरे से पराजित हुए जो योगी है उसके पास एक खोपड़ी तो है और दूसरी मेरी खोपड़ी मिल गई तो वह बड़ा-बड़ा अनर्थ कर डालेगा। अतः मेरी खोपड़ी उसके हाथ नहीं लगनी चाहिये। तुम यह भी विचार नहीं करना कि गुरु महाराज के मृत शरीर की पाशातना कैसे करें ? कारण इसमें जैनशासन का भावी नुकसान है अतः मेरा कहना ध्यान में रखना। आचार्य श्री अनशन और आराधना कर स्वर्गवासी हुये तो शिष्यों ने उनकी खोपड़ी का चूर्ण कर डाला। बाद श्रीसंघ ने महोत्सव पूर्वक सूरिजी के शरीर को सेविका में बैठा कर स्मशान की ओर ले जा रहे थे तो योगी ने पूछा कि आज किस मुनि का स्वर्गवास हुआ है ? किसी ब्राह्मण ने कहा जीवदेवसूरि का। इस पर योगी ने कृत्रिम शोक दर्शाते हुए गुरु महाराज के मुख देखने के लिये सेविका नीचे रखाई पर खोपड़ी का चरा चरा हुआ देख कर योगी ने निराश हो कर कहा कि राजा विक्रय की खोपड़ी मेरे पास है पर मैं अभागा हूँ कि जीवदेवसूरि की खोपड़ी मेरे हाथ नहीं लगी । बाद योगी ने अपने विद्याबल से मलियागिरि का सरस चन्दन ला कर गुरु महाराज के निर्जीव कलेवर का अग्नि-संस्कार किया। आचार्य जीवदेवसूरि महाप्रभाविक आचार्य हुए और आपने अन्तिम आराधना कर वैमानिक देवताओं में जाकर देवता सम्बन्धी सुखों का अनुभव किया। आचार्य जीवदेवसूरि के साथ घटी हुई गाय की घटना को आधुनिक खरतरों ने अपने आचार्य जिनदत्तसूरि के साथ घटित कर जिनदत्तसूरि को चमत्कारिक बतलाने की व्यर्थी कल्पना की है । पर कहाँ खेटयन्तं बहिः शृङ्गन्युगेग्राम प्रपात्य च । गर्भागारे प्रविश्यासौ ब्रह्ममतेः पुरोऽपतत् ॥ १४३ ॥ अपरे प्राहुरेको न उपायो व्यसने गुरौ । मृगेंद्रविक्रम श्वेतांबरं चैत्यान्तरस्थितम् ॥ १५० ॥ सृरो श्रुत्वेति तूष्णी के लल्लः फुलयशा जगौ । मद्विज्ञप्ति द्विजा यूयमेकां शृणुत सूनृताम् ॥ १६१ ॥ विरक्तोऽहं भवद्धर्मादृष्ट्वा जीववदं सतः । अस्मिन् धम्मै दयामूले लग्नो ज्ञातात्स्वकान्ननु ॥ १६२ ॥ जैनेष्वसूयया यूयमुपद्रवपरंपराम् । विधत्त प्रतिमल्लः, कस्तत्र वः स्वल्पशत्रवः ॥ १६३ ॥ मर्यादामिह कांचिश्चेत् यूयं दर्शयत स्थिराम् । तदहं पूज्यपादेभ्यः किंचित्प्रतिविधापये ॥ १६४ ॥ अथ प्रोचुः प्रधानास्ते त्यं युक्त प्रोक्तवानसि । समः कः क्षमयामीषां द्रवारेऽस्मदुपद्रवे ॥ १६५ ॥ स्वरुध्या सांप्रतं जैनधर्मे सततमुत्सवान् । कुर्वतां धार्मिकाणां न कोपि विघ्ना करिष्यति ॥ १६६ ॥ अस्तु च प्रथमो बूढः श्रीवीरबतिनां तथा। सदान्तरं न कर्त्तव्यं भूमिदेवैरतः परम् ॥ १६७ ॥ प्रतिष्ठितो न वाचार्यः सौवणमुपवीतकम् । परिधाज्याभिषेक्तव्यो ब्राह्मणैर्बह्ममन्दिरे ॥ १६८ ॥ इत्यभ्युपगते तैश्च लल्लः समुरुपादयोः। निर्वेश्य मौलिमाचख्यौ महास्थानं समुद्धर ॥ १६९ ॥ श्री जीवदेव सूरिश्च प्राहोपसमवम्मितः । कालत्रयेपि नास्माकं रोपतोथौ जनद्विषौ ॥ १७० ॥ तस्थुर्मुहूर्त मात्रेण तावद्गौब्रह्मवेश्मतः । उत्थाय चरणमागं कुर्वती निर्जगाम सा ॥ १७३ ॥ आस्थानं पुनराजग्मुर्गुरवो गुरवो गुणैः । वेदोदिताभिराशीभिर्विप्रैश्चक्रे जयध्वनिः ॥ १७५ ॥ ततः प्रभृति सौदर्यसंबंधादिव वायट । स्थापितस्तैरिह स्नेहो जैनैरद्यापि वर्तते ॥ १७६ ॥ x ततः स्नेहं परित्यज्य निर्जीवेऽस्मत्कलेघरे । कपालं चूर्णयध्वं चेत्तत्र स्यान्निरूपद्रवम् ॥ १८२ ॥ इहार्थे मामकीनाज्ञापालनं ते कुलीनता । एतत्कार्य ध्रुवं कार्य जिनशासनरक्षणे ॥ १८३ ॥ इति शिक्षा प्रदायास्मै प्रत्याख्यानविधि व्युधुःविधायाराधनां वध्युः परमेष्ठिनमस्कृताः ॥ १८४ ॥ निरुध्य पवनं मूर्ना मुक्त्वा प्राणान् गुणाब्धयः । वैमानिकसुरावसं तेऽतिनियमशिश्रियन् ॥१८५॥ प्र० च० आचार्य जीवदेवमूरि] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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