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वि० [सं० ५२ वर्ष ]
[ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
धामधूम से सूरिजी से प्रतिष्ठा करवाई। सूरिजी ने शर्त के अनुसार उस देवी को उस मन्दिर में भुवनदेवी के रूप में स्थापना करवा दी ।
जब से लल्ल सेठ ब्राह्मणधर्म को त्याग कर जैनधर्म में प्रविष्ट हुआ तब से ब्राह्मण जैनधर्म से द्वेष रखने लग गये थे एक समय कई नादान ब्राह्मणों ने द्वेष के कारण एक कृश एवं मरण शरण हुई गाय को घसीट कर महावीर चैत्य में लाकर गिरादी और बड़ी खुशी मनाई कि कल श्वेताम्बर जैनों की बड़ी भारी निन्दा और हँसी होगी । ठीक सुबह साधुओं ने देखा और गुरुजी से निवेदन किया । गुरूजी ने साधुत्रों को अंग रक्षक के तौर पर रख कर आप एकान्त में ध्यान किया । परकाया प्रवेश विद्या आपको पहिले से वरदायी थी । श्रतः गाय पैरों से चलकर मन्दिर के बाहर आई जिसको सब लोगों ने देखा और गाय तो चलती २ ब्रह्मभवन की ओर जाने लगी पुजारी मंदिर का द्वार खोलता ही था कि गाय ने अपने सींगों से पुजारी को गिरा कर ब्रह्मभवन के मूलगम्भार में जाकर पड़ गई जिसको देख सब ब्राह्मण भयभीत हो गए और विचार करने लगे कि यह क्या आफत आ गड़ी |
कई एक ने कहा कि यह नादान ब्राह्मणों ने जैनचैत्य में गाय डाली थी उसका बदला है। कई एकों ने कहा कि अब क्या करना चाहिये ? कई एक ने कहा कि वीर चैत्य में श्वेताम्बरसूरि हैं उनकी शरण लो। कई एक ने कहा कि ब्राह्मणों ने उन पर कई उपद्रव किये हैं क्या अब वे तुम्हारी सुनेंगे ? कई एको ने कहा 'कि अगर तुम खुशामद करोगे तो वे दया के अवतार तुम्हारी श्रवश्य सुनेंगे इत्यादि ।
ब्राह्मण मिलकर सूरीश्वरजी के पास आये और खूब नम्रता एवं दीन स्वर से प्रार्थना की उस समय लल्ल सेठ भी वहाँ बैठा था उसने ब्राह्मणों को जो उपालम्भ देना था दिया और बाद में आपस में द्वेष न रख कर प्रेम भाव रखना इत्यादि ब्राह्मणों से कई शर्तें करवा कर गुरु महाराज से प्रार्थना की । अतः गुरु महाराज ने अपने ध्यान बल से उस गाय को ब्रह्म मंदिर से बाहर निकाली । वह ग्राम के बाहर जाकर भूमि पर गिर गई तत्र जाकर ब्राह्मणों ने बड़ी खुशी के साथ सूरिजी की जयध्वनि से गगन को गुंजा दिया और जैन तथा ब्राह्मणों के बीच जो भेदभाव था वह मिटकर भ्रातृभाव उत्पन्न हो गया । इतना ही क्यों पर वे ब्राह्मण जैनधर्म को श्रद्धापूर्वक मानने लगे ।
इत्यादि जीवदेवसूरि जैनशासन में महा प्रभाविक श्राचार्य हुए है। जब आपने अपना आयुष्य नजदीक समझा तो अपने पट्ट पर योग्य साधू को आचार्य बनाकर कहा कि मेरो मृत्यु के साथ ही मेरी खोपड़ी
अथ लल्लं द्विजा दृष्ट्वा जिनधम्मैकसादरम् | स्वभावं स्वमजानाना दधुर्जेनेषु मत्सरम् ॥ १२८ ॥ अन्यदा बटचः पापपटवः कटवो गिरा । आलोच्य सुरभि कांचिदंचन्मृत्युदशास्थिताम् ॥ १३१ ॥ उत्पाद्योत्पाद्य चरणान्निशायां तां भृशं कृशाम् । श्रीमहावीरचैत्यांतस्तदा प्रावेशयन् हठात् ॥ १३२ ॥ गतप्राणां च तां मत्वा बहिः स्थित्वातिहर्पतः । ते प्राहुस्त्र विज्ञेयं जैनानां वैभवं महत् ॥ १३३ ॥ वीक्ष्यः प्रातर्विनोदोऽयं श्वेतांबर विषकः । इत्थं च कौतुकाविष्टास्तस्थुर्देवकुलादिके ॥ १३४ ॥ मुनीन् मुक्त्वां रक्षार्थ मठांतः पटुसन्निधौ । अमानुषप्रचारेऽत्र ध्यानं भेजुः स्वयं शुभम् ॥ १३७ ॥ अन्तर्मुहूर्तमात्रेण सा धेनुः स्वयमुत्थिता । चेतना केतना चित्रहेतुश्चेत्याद्वहिर्ययौ ॥ १३८ ॥ यावत्तरपूजकः प्रातरमुद्धात्यसौ । उत्सुका सुरभिर्ब्रह्मभवने तावदाविशत् ॥ १४२ ॥ प्र०च०
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[ श्री वीर परम्परा
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