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________________ आचार्य सिद्धसरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ४५२ एक दिन लल्ल के घर पर दो जैनमुनि भिक्षा के लिये आयेईतो सेठ ने अपने अनुचरों को कहा कि इन मुनियों के लिये अच्छा भोजन बनाकर प्रतिलाम करो। मुनियों ने कहा सेठ हमारे लिये पृथ्वी, पानी, अग्नि आदि की हिंसा कर भोजन बनाया जाय वह भोजन हमारे काम में नहीं आता है इत्यादि । सेठ ने सोचा अहो ये तो साक्षात् दया के अवतार ही दीखते हैं। अत: प्रार्थना की कि पूज्यवर ! मैं धर्म का स्वरूप समझना चाहता हूँ कृपया आप मुझे धर्म का स्वरूप समझाइये ? मुनियों ने कहा कि यदि आपको धर्म सुनना हो तो गुरु महाराज के पास आकर सुनो इत्यादि । लल्ल सेठ प्राचार्य जीवदेवसूरि के पास आया और शरिजी ने जैनधर्म का स्वरूप इस प्रकार सुनाया कि सेठने बड़ी खुशी के साथ जैनधर्म स्वीकार कर बारहनत धारण कर लिये। सेठ ने कहा कि हे प्रभो ! मैंने सूर्यग्रहण में एक लक्ष भुद्रिका दान में निकाली जिसमें आधा द्रव्य तो यज्ञ में व्यय कर डाला शेष पचास हजार रहा है वह आप भहन करे। सूरिजी ने कहा हम अकिंचत (निस्पृही) है द्रव्य को छूते भी नहीं सो लेने की तो बात ही कहां रही । अगर तुम्हारा ऐसा ही आग्रह हो तो कल शाम को तेरे पास कोई भेट आवे तो मुझे कहना मैं तुझे रास्ता बतला दूंगा । वस, सेठ अपने घर पर आया। दूसरे दिन शाम को एक सुथार अपूर्व पलंग लेकर आया जिसके पायों पर सुन्दर वृषच कोरे हुए थे। सेठ गुरु बचन याद कर उसको गुरु महाराज के उपाश्रय ले गया। सूरिजी ने उसके दो वृषभों पर वासक्षेप डालकर कहा कि जहाँ ये वृषभ ठहर जांय वहां जिनमन्दिर बना देना वृषभ ठीक 'पीपलातक' स्थान में ठहरे। सेठ ने वहां जिन मंदिर बनाना शुरू कर दिया। जब मन्दिर का काम चल रहा था वहां एक अबधूत आया और उसने कहा कि यहां शल्य यानि स्त्री की हड्डिये हैं अतः उसे निकालने के बाद मन्दिर बनाना अच्छा है। हड्डिये निकालने का विचार किया तो रात्रि में सूरिजी के पास एक देवी ने आकर कहा कि मैं कन्या कुब्ज राजा की राजकन्या थी । म्लेच्छों के भय एवं शील की रक्षा के लिये धुंवा में पड़ कर मरगई थी अतः मेरी हड्डिये उस स्थान पर हैं जहां रेठ मन्दिर बना रहा है । पर उन हड्डियों को मैं निकालने नहीं दूंगी। हाँ, मेरे पास द्रव्य बहुत हैं चाहिये उतना द्रव्य मैं आपको दूगी । सूरिजी ने उस देवी को मन्दिर में देवी के रूप में स्थापना करने की शर्त से संतुष्ट कर मन्दिर तैयार करवाया और श्रेष्टि लल्ल ने उस मन्दिर की खूब a ततः प्रभृत्यसौ धर्मदर्शनानि समीक्षते । भिक्षाये तद्गृहे प्राप्तं श्वेताम्बर मुनिद्वयम् ॥ ९२ ॥ असं संस्कृत्य चारित्रपात्राणां यच्छत ध्रुवम् । अमीषां ते ततः प्रोक्षुनास्माकं कल्पते हितत् ॥ १३ ॥ पृथिव्यापस्तथा वह्निायुः सर्यो वनस्पतिः । साश्च यत्र हन्यन्ते कार्ये नस्तत्र गृह्यते ॥ ९४ ॥ अथ चिन्तयाति श्रेष्ठी वितृष्णत्वादही अमी । निर्ममा निरहङ्काराः सदा शीतल चेतसः ॥ ९५॥ ततोऽवददसौ धर्म निवेदयत मे स्फुटम् । ऊचतुस्तौ प्रभुश्चैत्ये स्थितस्तं कथयिप्यति ॥ १६ ॥ इत्युक्त्वा गतयोः स्थानं स्वं तयोरपरेऽहनि । ययौ लल्लः प्रभोः पश्च चके धर्मानुयोजनम् ॥ ९७ ॥ श्रुत्धेति स प्रपेदेऽथ स सम्यक्तां व्रतावलीम् । धर्म चतुर्विधं ज्ञात्वा समाचरदहर्निशम् ॥१०॥ + आह चैष प्रभो किंचिदबधार यताधुना । द्रव्यलक्षस्य संकल्यो विहितः सूर्य पर्वणि ॥१०२॥ तदध व्ययितं धमाभासे वेदस्मृतीक्षिते। कथमद्ध मया शेष व्यपनीयं तदादिश ॥१०३॥ मम चेतसि पूज्यानां दत्तं बहुफलं भवेत् । तद्गृहीत प्रभो यूयं यथेच्छं दत्त वादरात् ।।१०४॥ अथाहगुरखो निष्किंचनानां नो धनादिके । स्पशॉपि नोचितो यस्माद्वक्तव्यं किन्नु संग्रह।१०५० प्र०च. आचार्य जीवदेवसूरि] ४५१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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