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वि० सं० ५२ वर्ष ]
[ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
के पुतले की कनिष्ठका अंगुली काटी तो योगी की अंगुली कट गई जब श्रावकों ने योगी के पास जाकर उसकी कटी हुई अंगुली का हाल पूछा तब उसने कहा कि यह तो अकस्मात् हुआ है । श्रावकों ने कहा कि अरे दुष्ट ! इस सती साध्वी को जल्दी छोड़ दे वरना तेरी कुशलता नहीं है । योगी ने न माना तब पुतले की दूसरी भंगुली काट डाली, तुरत ही योगी की दूसरी अंगुली कट गई। श्रावकों ने कहा कि अभी समय हे मान जा नहीं तो इस पुतले का मस्तक काट दिया जायगा । योगी ने डर कर कहा कि साध्वी के सिर पर पानी छिटको । बस, पानी छिड़कते ही साध्वी सावधान हो अपनी गुरुणी के पास आ गई और योगी वहां से भाग कर देशान्तर में चला गया। साध्वी को प्रायश्चित दे शुद्ध कर समुदाय में ले ली। इस प्रकार जीवदेवसूरि ने अनेक बादियों को अपने आत्मिक चमत्कार बतला कर जैनधर्म की प्रभावना की।
राजा विक्रम उज्जैन में राज करवा था। उस समय पृथ्वी का ऋण चुकाने के लिए राजा ने अपने आदमियों को प्रत्येक ग्राम नगर में भेजा था उसमें एक लींबा नामक श्रेष्टि को वायट नगर में भेजा। लिंबा वायट में आया तो वहां श्रीमहावीर का मंदिर जीर्ण हुआ देखा । लिंबा ने उस मंदिर का जीर्णोद्धार करवा कर विक्रम संवत् के सातवें वर्ष में सुवर्ण कलश एवं ध्वज दंड सहित महावीर मंदिर की प्रतिष्ठा प्राचार्य जीवदेवसरि से करवाई । प्रन्थकार लिखते हैं कि वह मंदिर प्राज भी ( वि० सं० १६३. ) विद्यमान है।
___ महास्थान वायट नगर में अपार धन का धनी एक लल्ल नामक सेठ रहता था। उसने सूर्यप्रहण में एक लक्ष मुद्राऐं धर्मार्थ निकाली थी अतः ब्राह्मणों को आमंत्रण कर एक विशाल यज्ञ करना प्रारंभ किया। अग्नि का कुण्ड जल रहा था । ब्राह्मण वेद के पाठोच्चारण कर रहे थे। ऊपर एक वृक्ष पर महाकाया वाला कृष्ण सर्प था । धूम्र से चक्र खाकर नीचे गिरा तो ब्राहाणों ने कहा कि बलि के लिये स्वयं नागेन्द्र श्रा गया है । इस प्रकार कह कर उस सर्प को अग्निकुण्ड में डाल दिया जिसको तड़फड़ाता देख कर लल्ल सेठ ने कहा अरे यह कैसा दुष्कर्म कि जीते हुये पंचेन्द्रिय जीव को अग्नि में डाल दिया ! ब्राह्मणों ने कहा सेठ चिन्ता न करो मंत्रों द्वारा इसको स्वर्ग पहुँचा देंगे यदि तुमको करना है तो एक सोने का सर्प बना कर ब्राह्मणों को भेंट कर दो। लल्ल ने कहा कि एक तो सर्प मर गया है और इसके लिए सोने का सर्प बना कर मारू तो फिर उसके लिए और सर्प बनाना पड़ेगा ये तो महान् दुष्कर्म है। अत: सेठ ने यज्ञ स्तम्भ को उखेड़ दिया, कुण्ड को मिट्टी से पुरा दिया, ब्राह्मणों को विसर्जन क दिया और सच्चे धर्म की शोध में संलग्न हो गया।
इतः श्री विक्रमादित्यः शास्यवती नराधिपः । अनृणां पृथिवीं कुर्वन् प्रवर्तयति वरसरम् ॥७॥ वापटे प्रेपितोऽमात्यो लिम्याग्यस्तेन भूजा । जनानुण्याय जीणं चापश्यच्छीवीरधाम तत् ॥७२॥ उधार स्ववंशेन नितेन सह मन्दिरम् । अर्हतस्तत्र सौवर्णकुम्भदण्डध्वजालिमृत् ॥७३॥ संवत्सरे प्रवृत्त स पटसु वर्षेषु पूर्वत्: । गतेषु सप्तमस्थानतः प्रतिष्टां ध्यजकुम्भयोः ॥७॥ श्री जीवदेवसूरिभ्यस्तेभ्यस्तत्र व्यावापयन् । अद्याप्यभङ्गं ततथिममूग्भिः प्रतिष्ठितम् ॥७५॥ इतश्चास्ति महास्थाने प्रधानो नैगमबजे। दारिद्यारिजये मला श्रेष्टी ललः कलानिधिः ॥७६॥ तत्र कुण्डोपकण्टेहिस्तदूर्वस्थाग्लिका दमात् । धूमाकुलाक्षि युग्मोसौ फटस्फटिति चापतत् ॥ ८ ॥ आदातुमेप भोगीन्द्रः स्वयमागत आतीः। वाचालेपु द्विजेप्देवं कोपि यही तमक्षिपत् ॥ ८१ ॥ जाज्वंयमानाद्वीक्ष्य यजमानः सुधीरचता । कृपया कापमानाङ्गः प्राह किं दुष्कृतं कृतम् ॥ ८२ ॥ जीवन् पंचेन्द्रियो जीया स्पुटं दृश्यः सवेतनः । सहसैव बलहह्नौ क्षिप्यते धर्म एप कः ॥ ८३ ॥
चह्निर्विध्यापितः कुण्डमदत पिता द्विजाः। सात रोयमाहाल्ये न कोऽन्यसरशं चरेत् ॥ ९॥प्र०च० Jain E84 International
[ श्री वीर परम्परा
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