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वि० पू० ४०० वर्षे ।
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
२- बलाई- वि. सं. ९१३ में आचार्य पूर्णचंद्रसूरि आबू के आस-पास विहार कर रहे थे । सरसाई ग्राम में सूरिजी का पधारना हुआ । वहाँ के अधिपति परमार राव दलपतादि सूरिजी का व्याख्यान सुनने को आये । सूरिजी ने अहिंसा के विषय पर खूब जोर एवं युक्ति प्रमाण द्वारा उपदेश दिया और साथ में हिंसा और मांसाहारियों के लिये सिवाय नरक के कौन गति हो सकती है और नरक के दुःखों का भी इस प्रकार वर्णन किया कि उपस्थित लोगों का हृदय एकदम कम्प उठा और वे जैनधर्म स्वीकार कर अहिंसा के परमोपासक बन गये। जैनधर्म स्वीकार करने के बाद उनके पास बहुत द्रव्य जमा हो गया, जिससे उन्होंने बोहरगत का काम किया। अत: ये बोहराजी कहलाये। उन लोगों की सन्तान की भी खूब वृद्धि हुई। उन्हीं के अन्दर से विक्रम की चौदहवीं शताब्दी में बोहराजी लिच्छमणदासजी रत्नपुरा में बसते थे जिसके विषय हम ऊपर लिख आये हैं कि बोहराजी से बलाई कहलाये।
__ ३-ढेडिया यह मूल परमार जात के राजपूत थे, वि.सं. ८८९ में आचार्य सोमप्रभसूरि ने धर्मापदेश देकर जैन बनाये जिसका उदाहरण ऊपर लिखा जा चुका है कि केवल हंसी-मस्करी से ही इनका नाम ढेढ़िया पड़ गया था।
इत्यादि ओसवाल समाज की तमाम जातियाँ प्रायः क्षत्रीवर्ण से ही बनी हैं, जो इस ग्रन्थ के पढ़ने से आप भली भांति जान सकोगे । इस हालत में बिना सोचे समझे एक पवित्र जाति पर क्षुद्रता का आक्षेप कर देना यह कितना अन्याय और द्वष-बुद्धि का कारण है।
इस प्रकार के आक्षेप यह पहिले पहल ही नहीं हैं पर इसके पूर्व फुलेगनिवासी छोटूलाल शर्मा ने अपनी 'जाति अन्वेषण' नामक पुस्तक में भी मनगढन्त कल्पना द्वारा कई प्रकार के आक्षेप किये थे। पर जब पीपाड़ के श्रीसंघ ने उन्हें नोटिस द्वारा सूचित किया कि आपने जो अपनी पुस्तक में आक्षेप ओसवाल समाज पर किया है इसके लिये आप क्या साबूती दे सकते हैं ? वरना तुम्हारे पर कानूनी कार्यवाही क्यों न की जाय ? इसके उत्तर में शर्माजी ने क्षमायाचना करते हुये लिखा कि मैंने जैसा सुना, वैसा लिख दिया है। यदि मेरे लिखने से आपकी जाति का अपमान हुआ हो तो मैं माफी चाहता हूँ और आप जो सत्य हिस्ट्री भेज देंगे तो द्वितीय आवृत्ति में मैं अपनी भूल सुधार लँगा इत्यादि ।
___ यह तो हुई ओसवाल जाति के विषय की बात, अब रही धर्म विषय की बात । धर्म कोई भी जाति एवं वर्णवाला पालन कर सकता है क्योंकि धर्म का सम्बन्ध जाति एवं वर्ण के साथ नहीं, पर आत्मा के साथ है, जैसे शैव और वैष्णव धर्म का पालन करने वाले क्षत्रिय, ब्राह्मण, वैश्य हैं वैसे शूद्र भी हैं, पर धर्म पालन करने वालों का न्याति-व्यवहार एक हो यह नियम नहीं है। इसी प्रकार जैन-धर्म को भी समझ लीजिये। यदि कोई शुद्र जैनधर्म पालन करना चाहे तो उसके लिये मनाही भी नहीं है। क्योंकि कहा है किःशूद्रोऽपि शीलसम्पन्नो, गुणवान् ब्राह्मणे भवेत् । ब्राह्मणोऽपि क्रियाहीनः शूद्रापत्य समाभवेत् ।।
शास्त्रकारों ने वर्ण का आधार कर्म पर रख छोड़ा है। कारण, जिसका कर्म अच्छा है उसका परिणाम अच्छा है । जिसका परिणाम अच्छा है वह धर्म का पात्र है।
इत्यादि इन प्रमाणों द्वारा समाधान से हमारे भ्रमवादियों की शंका निर्मूल हो जाती है और निश्चय हो जायगा कि पवित्र श्रोसवाल ज्ञाति २४०० वर्ष पूर्व पवित्र क्षत्रिय वर्ण से उत्पन्न हुई।
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