SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 408
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ओसवाल जाति की ऐतिहासिकता ] [ वि० पू० ४०० वर्षे न होगा कि श्रोसवाल ज्ञाति उस जमाने में शाखाप्रतिशाखा फलफूल से वटवृक्ष की माफिक फली फूली थी। यह उस समय के इस जाति के अभ्युदय को बतला रही है, क्योंकि उस समय ओसवाल जाति में सम्प था, संगठन था, जाति भाइयों के प्रति प्रेम, स्नेह, वात्सल्यता और सहानुभूति के भाव थे, एवं ओसवालों के दिन चढ़ते थे । यही कारण था कि एक एक गोत्र से अनेक शाखाप्रतिशास्त्रा निकल कर वटवृक्ष की भांति भारत के सब प्रान्तों में प्रसर गई थीं। ____संसार में उदय और अस्त का चक्र हमेशा चलता ही रहता है । जब उदय के कारण अस्त के कारणों का रूप धारण कर लेते हैं तब उदय की रुकावट होकर अस्त का चक्र चल पड़ता है। श्रोसवाल जाति का भी यही हाल हुआ कि इसमें सम्प के स्थान कुसम्प, संगठन के स्थान फूट, प्रेम के स्थान द्वष स्नेह के स्थान विद्रोह, वात्सल्यता के स्थान एक दूसरे को नीचा गिराना, सहानुभूति के स्थान अपने भाइयों को तकलीफ पहुँचा कर जड़मूल से उखेड़ फेंकने की नीति को स्वीकार की। बस, उस दिन से ही ओसवालों के दिन बदल गये । जहां हजारों घर थे वहां नाम मात्र को ओसवाल रह गये और कई हजारों की बस्ती वाले ग्राम तो ऊजड़ से हो गये । देखिये नमूना १-मेड़तारोड फलौदी में कई ५००० घर ओसवालों के थे, आज एक पार्श्वनाथ का मंदिर रहा है। २-श्रोसियों में लाखों ओसवाल बसते थे, श्राज एक महावीर मंदिर खड़ा है। ३-रानकपुर में ३५०० घर ओसवाल पोरवालों के थे, आज एक आदीश्वर बाबा ही विराजमान हैं ४-पुच्छाला महावीर के पास हजारों घरों की बसती थी, आज एक महावीर का मंदिर है । ५-जैतारन के पास एक रत्नपुरा ग्राम था, जहां के ओसवालों के नाम वंशावलियों में लिख मिलते हैं, आज वहां किसान लोग खेत रवड़ते हैं। ६-मंडोवर में जैनों की काफी आबादी थी, आज जैनों के तीन मंदिर ही शेष रह गये हैं। ७- नागौर में एक समय जैनों के ८००० घर कहे जाते हैं। केवल एक चोरडिया जाति के १००० घर थे, बाज मात्र ओसवालों के ४०० घर रह गये हैं। ८---मेड़ता में ३५०० घर थे, आज करीब १०० पा रहे हैं। ९-रुणावती (रूण) में ७५० घर तो केवल एक लोढ़ों के ही थे, आज ३५ घर आ रहे हैं। यदि इस प्रकार लिखा जाय तो एक बड़ा ग्रन्थ बन जाता है और इसमें आश्चर्य करने जैसी कोई बात भी नहीं है । क्यों कि जिसके घर में पूर्वोक्त फूटादि के कारण पैदा होते हों वे कब जीने काबिल रहते हैं। प्रसंगोपात श्रोसवाल जाति के उदय अस्त का थोड़ा सा दिग्दर्शन करवा कर अब चंडालियादि जातियों की उत्पत्ति के विषय में थोड़ा सा हाल लिख दूगा कि यह जातियां किस वंश वणं से उत्पन्न हुई हैं जैसे ---- १-चंडालिया-इन का मूल गौत्र लुंग या लुंगिया है जो लुंगों के बड़े भारी व्यापारी थे। इनके प्रतिबोधक श्राचार्य रत्नप्रभसूरि ही थे। लुंगिया गोत्र वालों को इनकी कुलदेवी ने प्रसन्न होकर अखूट द्रव्य दिया था और उस द्रव्य को उन्होंने जैन धर्म के अभ्युदय के निमित्त खुले दिल से व्यय भी किया था। कई वार संघ निकाल कर साधर्मी भाइयों को वस्त्राभूषण और सोनामुहरों की पहिरामणि दी थी। कई स्थानों में जैन मन्दिर भी बनाये थे और दुष्कालों में मनुष्य और पशुओं को अन्न एवं घास देकर उनके प्राण भी बचाये थे। चंडालिया प्राम के कारण इन गोत्र वालों का नाम चंडालिया हुआ है । Jain Education International For Private & Personal Use Only ___wwww.ja२०५०
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy