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वि० पू० ४०० वर्ष ]
[भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
यह भी भय था कि शायद पीछे से जागीरदार के श्रादमी न आ जावें। अतः उन्होंने अपनी प्रोसवाली पोशाक बदल कर किसान जैसी पोशाक पहिन ली और माल की गाडियां पर कुछ चामड़े डाल दिये । वे जा रहे थे, पीछे जागीरदार को खबर होते ही रात्रि में सवारों को भेजा। उन्होंने बोहराजी की गाड़ियों को पकड़ लिया और पूंछा, तुम कौन हो ? उन्होंने अपना माल बचाने की नीयत से कहा बापजी दूर रहना हम बलाई हैं । बस, सवार वापिस लौट गये और बोहराजो अपना माल बचा कर सकुशल इच्छित स्थान पर पहुँच गये । बाद जागीरदार को मालूम हुआ कि बोहराजी बड़े ही बुद्धिमान एवं मुत्सद्दी निकले कि बलाई बन कर अपना माल बचा लिया। उस दिन से लोग बोहराजी को बलाई-बलाई कहने लगे और उनकी संतान आज भी उसी बलाई नाम से कहलाती हुई सोजत वगैरह में विद्यमान है।
इसी प्रकार कई हाँसी मस्करी से, कई व्यापार से, कई अपने नामांकित पिता के नाम से जातियें बन गई थीं जिनके थोड़े से नामों का यहाँ परिचय करवा देना अप्रासंगिक न होगा।
१-- सांढ, सीयाल, नाहर, काग; बुगला, गरुड़, कुकट, मिन्नी, चील, गदइया, हंस, मच्छा, बोकडीया, हीरण, बागमार, बकरा, लुंकड़, गजा, घोड़ावत्, धाड़ीवाल, धोखा, मुर्गीपाल, वागचार इत्यादि पशुओं के नाम पर ओसवालों की ज्ञातियों के नाम पड़ गये, पर यह तो कदापि नहीं समझा जावे कि यह ज्ञातियां पशुओं से पैदा हुई हैं परन्तु यह केवल-हांसी ठट्ठा का ही फल है।
२-हथुडिया, साचोरा, जालौरी, सिरोहीया, रामसेणा, नागोरी, रामपुरिया, फलोदिया, मेड़तिया, मंडोवरा, जीरावला, गुदोचा, नरवरा, संडेरा, रत्नपुरा, रूणिवाल, हरसोरा, भोपाला, कुचेरिया, बोरूदिया, भिन्नमाला, चीतोड़ा, भटनेरा, संभरिया, पाटणी, खीवसरा, चामड़, ढेडिया, चंडालिया, पूंगलिया, श्रीमाल, इत्यादि ज्ञातियां निवासनगर के नाम से ओलखाई जाती हैं।
३-भंडारी, कोठारी, खजानची, कामदार, पोतदार, चौधरी पटवारी, सेठ, मेहता कानूनुंगा, शूरवा, रणधीरा, बोहरा, दफ्तरी इत्यादि जातियां राजाओं के काम करने से क्रमशः उपनाम पड़ गये हैं ।
४ -घीया, तेलिया, केसरिया, कपूरिया, बजाज, गुगलिया, लूणिया, पटवा, नालेरिया, सोनी, चामड़, गान्धी, जड़िया, बोहरा, गुदिया, मणियार, मीनारा, सराफ, मवरी, पितलिया, भंडोलिया, धूप यादि ज्ञातियों के नाम व्यापार से पड़े हैं।
५ - कोटेचा, डांगरेचा, ब्रह्मचा, वागरेचा, कांगरेचा, सालेचा, प्रामेचा, पावेचा, पालरेचा, संखलेचा, नांदेचा, मादरेचा, गुगलेचा, गुदेचा, केडेचा. सुंघेचा इत्यादि ज्ञातियों के कई-कई कारणों से एवं उपनाम दक्षिण की तरफ गये हुये ओसवालों के हैं।
६-मालावत्, चम्पावत, पातावत् , सिंहावत् श्रादि तथा सेखाणि, लालाणि, धमाणि, तेजाणि, दुद्धाणि, सीपाणि, वैगाणि, आसांणि, जनाणि,निमाणि इत्यादि थलीप्रान्त व गोड़वाड़ प्रान्त मेंरहने वालों के पिता के नाम पर ज्ञातियों के नाम पड़ गये हैं।
इत्यादि अनेक कारणों से ओसवालों की शाखा-प्रतिशाखारूप सैंकड़ों नहीं पर हजारों जातियां बन गई, जो ओसवालों में १४४४ गोत्र कहे जाते हैं, पर अन्तिम “डोसी और घणाइ होसी" इस पुरानी कहावत के बाद भी एकेक गौत्र से अनेक जातियां प्रसिद्धि में आई थीं । यहाँ पर यह कहना भी अतिशयोक्ति
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