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________________ ओसवाल जाति की ऐतिहासिकता ] [ वि० पृ० ४०० वर्ष श्रोसवाल जाति का आदर्श श्रोसवाल जाति के प्रादुर्भाव का मूलस्थान उपकेशपुर है । तदनुसार इस जाति का प्राचीन प्रचलित नाम उपकेशवंश है । उपकेशपुर का अपभ्रंश होकर श्रोसियां ( नगर ) शब्द बना । तदनुसार उपकेशवंश शब्द का भी रूपान्तर होकर ओसियां नगर के आधार पर ओसवंश शब्द प्रसिद्ध हुआ। अन्यान्य नगरों में जाकर बसने से इसी वंश के लोग "ओसवाल" नाम से सम्मानित होने लगे। उपकेशवंश के प्रादुर्भाव का समय वि० पूर्व ४०० वर्ष है। आचार्य श्रीरनप्रभसूरि ने वीरात् ७० वर्षे उपकेशपुर में इस वंश की स्थापना की थी। आचार्य श्री ने हिंसामय श्राचार वाले राजपूतों की शुद्धि कर के महाजनसंघ रूपी सुदृढ़ संस्था की स्थापना की। यही संघ भारतीय जातियों के इतिहास में मानमर्यादा, वैभव, दानशीलता एवं उदारता इत्यादि की दृष्टि से अनुपम स्थान रखता है। हमारे इस महाजनसंघ अथवा ओसवाल जाति के रीति-रिवाज इत्यादि इतने उत्तम हैं कि इस भव और पर-भव में कल्याणकारी हैं । पाठकों की जानकारी के निमित्त यहां संक्षिप्त परिचय देना ही इस लेख का मुख्य उदेश्य है । १-ओसवाल ज्ञाति-राजपूतों से बनी है । इसमें प्रथम तो सूर्यवंशी-चन्द्रवंशी क्षत्रिय सम्मिलित हुए - पश्चात् परमार, चौहान प्रतिहार-सोलंकी, राठौड़, शिशोदिया, कच्छवाह एवं खीची इत्यादि राजपूतों को भी प्रतिबोध दे एवं जैनधर्म में दीक्षित कर पूर्व के ओसवालों में सम्मिलित कर दिए। इस विषय में अगर आप किसी श्रोसवाल से प्रश्न करेंगे कि आपका नख क्या है ? उत्तर में यही कहेंगे कि हमारा नख परमार चौहान या अन्य जिन राजपूतों से वे बने होंगे वही बताएंगे । राजपूतों के अतिरिक्त ब्राह्मण एवं वैश्यों को भी जैनाचार्यों ने जैन बना कर ओसवाल जाति में सम्मिलित कर लिए। २-ओसवाल ज्ञाति का स्थान-इसका मृलोत्पत्ति स्थान उपकेशपुर था, जिसको वर्तमान में ओसियां नगरी कहते हैं । पश्चात विभिन्न स्थानों से भी ओसवाल बनाते गए वैसे ही यह जाति भारत के सब प्रदेशों में फैन ती भी गई जैसे मारवाड़, मेवाड़, मालवा, दंढाड़, हाड़ौती संयुक्तप्रांत, मध्यप्रांत, पंजाब, पूर्व, आसाम, दक्षिण, कर्नाटक, तैलंग, महाराष्ट्रीय, गुजरात, लाट, सौराष्ट्र, कच्छ एवं सिंध इत्यादिप्रायः भारत में ऐसा कोई नगर या प्रांत नहीं कि जहां पोसवालों की बस्ती न हो । ३.--ओसवालों के धर्म गुरु-जैनाचार्य जो कनक कामिनी आदि जगत की सब उपाधियों से बिल्कुल अलग रहते हैं और पंच महाव्रत पालते हैं, परम निर्वृति भाव से मोक्षमार्ग का साधन करते हैं । उन मुनिवर्ग को श्रोसवाल अपने धर्म-गुरु मानते हैं और उन्हों पर वे इतना भक्ति-भाव रखते हैं कि एकेक पदाधिकार और नगर-प्रवेश के महोत्सव में हजारों लाखों रुपये खरच कर डालते हैं। ऐसे आचार्य महाराज केवल ओसवालों को ही नहीं, पर आम जनता को उपदेश दे उनका जीवन नीतिमय, धर्ममय, परोपकारमय,बनाकर इस लोक और परलोक में सुख के अधिकारी बना देते हैं । श्रोसवालों के दूसरे कुलगुरु होते हैं वे ओसवालों के घरों में सोलह-संस्कार वगैरह कार्य कराया करते हैं और ओसवालों की वंशावलियां भी लिखा करते हैं । ओसवाल अपने कुल गुरुत्रों का भी यथा उचित सम्मान किया करते हैं। २०७ www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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