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________________ औसवाल जाति की ऐतिहासिकता ] [वि० पू० ४०० वर्ष कर पूर्व स्थापित श्रीमाल ज्ञाति में मिला दिया । इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि श्रीमालज्ञाति के समकालीन श्रो सवाल जाति ही उतनी ही प्राचीन है कि जितनी श्रीमाल जाति प्राचीन है । ८ - खरतरगच्छीय यतिवर्य श्रीपालजी ने अपनी 'जैनसम्प्रदाय शिक्षा' नामक किताब के पृष्ट ६०७ पर ओसवालोत्पत्ति के विषय में लिखा है कि: चतुदर्श (चौदह) पूर्वधारी, श्रुतकेवली, लब्धिसंयुक्त, सकलगुणों के आगर, विद्या और मंत्रादि के चमत्कार के भंडार, शान्त, दान्त और जितेन्द्रिय, एवं समस्त श्राचार्यगुणों से परिपूर्ण, उपकेशगच्छीय जैनाचार्य श्री रत्नप्रभसूरिजी महाराज पाँच सौ साधुओं के साथ विहार करते हुये श्री आबूजी अचलगढ़ पधारे थे, उनका यह नियम था कि वे (उक्त सूरिजी महाराज) मासक्षमण से पारणा किया करते थे, उनकी ऐसी कठिन तपस्या को देख कर अचलगढ़ की अधिष्ठात्री अम्बादेवी प्रसन्न होकर श्री गुरु महाराज की भक्त हो गई, अतः जब उक्त महाराज ने वहाँ से गुजरात की तरफ विहार करने का विचार किया तब अम्बादेवी ने हाथ जोड़ कर उनसे प्रार्थना की कि - "हे परमगुरो ! आप मरुधर (मारवाड़) देश की तरफ विहार कीजिये, क्योंकि आपके उधर पधारने से दयामूल धर्म (जिनधर्म) का उद्योत होगा" देवी की इस प्रार्थना को सुन कर उक्त आचार्य महाराज ने उपयोग देकर देखा तो उनको देवी का उक्त वचन ठीक मालूम हुआ । आगे यतिजी लिखते हैं कि रत्नप्रभसूरि एक शिष्य के साथ उपकेशपुर में पधारे । देवी से रूई मंगा कर सांप बनाया और राजा के कुँवर को कटाया बाद उसका विष उतार का राजाप्रजादि नगर निवासियों को धर्मोपदेश दिया इसको यतीजी ने बहुत विस्तार से लिखा है साथ में दो छप्पय भी दिए हैं, जिस में एक तो किसी भाटों का अर्वाचीन कल्पित है और प्राचीन पट्टावलियों से मिलता जुलता है जो कि : वर्द्धमान त पछै बरष बावन पद लीधो । श्रीरत्नप्रभसूरि नाम तासु सत गुरु व्रत दीधो ॥ भीनमाल सुं ऊठिया जाय ओसियाँ बसाया । क्षत्रि हुआ शाख अठारा उठे ओसवाअ कहाण || इक लाख चौरासी सहस घर राजकुली प्रतिबोधिया । रत्नप्रभसूरि ओस्याँ नगर ओसवाल जिण दिन किया + ॥१॥ उस समय श्री रत्नप्रभसूरि महाराज ने ऊपर कहे हुए राजपूतों की शाखाओं का महाजन वंश और अठारह गोत्र स्थापित किये थे जो कि निम्नलिखित हैं : - १ तातहड़गोत्र, २ बाफणागोत्र, करणाट ३ बलहारागोत्र, ५ मोराक्षगोत्र, ६ कूलहटगोत्र ७ विरहटा गोत्र, ८ श्री श्रीमालगोत्र ९ श्रेष्ठी गोत्र, १० सुचिंतीगोत्र, ११ आईचनांगगोत्र, १२ भूरि ( भटेवरा ) गोत्र, १३ भाद्रगोत्र, १४ चींचटगोत्र, १५ कुमंटगोत्र, १६ डिंडगोत्र, १७ कनौजगोत्र १८ लघुश्रेष्ठ गोत्र । इस प्रकार ओसियां नगरी में महाजनवंश और उक्त १८ गोत्रों की स्थापना कर श्री सूरिजी महाराज विहार कर गये और इसके पश्चात् १० वर्ष के पीछे पुनः लक्खीजंगल नामक नगर में सूरिजी महाराज विहार करते हुए पधारे और उन्होंने राजपूतों के दशहजार घरों को प्रतिबोध देकर उनका महाजनवंश और सुघड़ाद बहुत से गोत्र स्थापित किये । प्रिय वाचकवृन्द ! इस प्रकार ऊपर लिखे अनुसार सबसे प्रथम महाजनवंश की स्थापना जैनाचार्य श्री रत्नप्रभसूरिजी महाराज ने की, उसके पीछे वि० सं० सौलहसौ तक बहुत से जैनाचाय्यों ने राजपूत + दूसरा कवित्त की समालोचना आगे के पृष्टों में की गई है । अतः यहां नहीं लिखी है । www.jal १४y.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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