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________________ वि० पू० ४०० वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास माहेश्वरी, वैश्य और ब्राह्मण जाति वालों को प्रतिबोध देकर ( अर्थात् ऊपर कहे हुए महाजनवंश का विस्तार कर ) उनके महाजनवंश और अनेक गोत्रों को स्थापन किया है।" इसी प्रकार खरतरगच्छीय यति रामलालजी ने अपनी 'महाजनवंशीय मुक्तावली' नामक किताब में लिखा है कि वीर निर्वाण से ७० वें वर्ष में आचार्य रत्नप्रभसूरि ने उपकेशपुर में महाराज उपलदेव आदि क्षत्रियों को प्रतिबोध कर जैन श्रावक बनाये जिनके १८ गोत्रों का नाम ऊपर यति श्रीपाजी के लेखानुसार ही लिखा है तथा खरतरगच्छीय मुनि चिदानन्दजी ने अपने स्याद्वादानुभव रत्नाकर नाम की पुस्तक में भी इसी आशय का लेख लिखा है। ___ खरतरगच्छीय वीरपुत्र आनन्दसागरजी ने अपने कल्पसूत्र का हिन्दी अनुवाद पृष्ठ ४६७ पर लिखा है कि “इसी तरह उपकेशगच्छ में श्रोसवंश स्थापक श्रीरत्नप्रभसूरीश्वर हुए जिनने अपनी लब्धि से दो रूप करके श्रोसियां और कोरंटनगर में समकाल प्रतिष्ठा कराई"। ९-स्थानकवासी समुदाय के मुनि श्री मणिलाल ने "जैनधर्मनोप्राचीनस क्षिप्त इतिहास अने प्रभु वीर पट्ठावली" नामक एक गुर्जर भाषा की पुस्तक लिखी है जिसके पृष्ट ७३ पर लिखा है किः _ "महावीर स्वामीना निर्वाण पछी सित्तरे वर्ष बाद श्रीपार्श्वनाथभगवान ना शासन मां छट्ठी पाटे "श्रीरत्नप्रभ" नामे आचार्य थया तेमणे "ओसीया" नामनी नगरी मां क्षत्रिय जाति ने प्रतिबोध श्रापी श्रावको बनाध्या त्यारे श्रोसवालों नी स्थापना थई, अने "श्रीमाल" नगर मां श्रीमाली ओनी स्थापना थई, अम श्री जैनधर्म विद्या प्रसारक वर्ग तरक थी, बहार पडेल "जैन इतिहास' नामक ग्रंथ मांथी उल्लेख मली आवे छे, महावीर स्वामी ना समय मां पण श्री पार्श्वनाथ भगवानना "संतानिया" संतो विचरता हता, ते श्री उत्तराध्ययन सूत्रमा प्रावेला श्री पार्श्वनाथ शासनना श्रीकेशीस्वामी अने प्रभु वीरना शासन ना श्री गौतम स्वामी ओ बने बच्चे वृत, वस्त्रो आदि बाबतमां चालेला संवाद पर थी सिद्ध थाय छे। श्रा उत्पत्ति बाबतनो बधु उल्लेख दृष्टिगोचर थयो नथी; पण समय नु अनुसंधान विचारतां आ हकीकत केटलेक अंशे सत्य होवान मानी शकाय । इस प्रकार और गच्छों की हद्दावल्यादि ग्रन्थों में ओसवाल उत्पत्ति विषयक उल्लेख होना संभव होता है क्यों कि यह एक प्रसिद्ध बात है कि जहाँ ओसवाल पोरवाज और श्रीमालों का प्रसंग आता है वहां इस बात को द्यवश्य लिखते हैं। आज हम सामयिक पत्र पत्रिकाओं और राजतवारीखों को पढ़ते हैं तो इस विषय के अनेक लेख मिलते हैं। अतः इस विषय में फिर ज्यों २ पट्टावल्या दि ग्रन्थ मिलते जायगे त्यों २ विषय पर प्रकाश पड़ता जायगा। उपरोक्त पट्टावल्यादि ग्रन्थ साधारण व्यक्तियों के लिखे हुये नहीं हैं परन्तु हमारे परमपूज्य महान प्राचार्यों के लिखे हुये हैं कि जिनपर हमारा अटल विश्वास है। अतः कोई कारण नहीं कि हम इन प्रमाणों में किसी प्रकार की शंका करें क्यों कि उन महाव्रतधारी सत्यवक्ता, निस्पृहौ आचार्यों को गलत लिखने में कोई भी स्वार्थ नहीं था । अतः इन पट्टावल्यादि के प्रमाणों से ओसवाल जाति की उत्पत्ति का समय वि० पू० ४०० वर्ष मानना न्याय संगत और युक्तियुक्त है । 90. Jain Eden International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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