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________________ वि० पू० ४०० वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास LAranMINine. undarma nand समा०-यह ममत्व नहीं पर संघ का व्यवस्थित रखने की सुन्दर व्यवस्था थी और जब तक उन दूरदर्शी श्राचार्यों की व्यवस्था ठीक तरह से चलती रही तब तक समाज में अच्छी शान्ति रही। बाद में नये नये मत पंथ एवं गच्छ पैदा हुये और उन्होंने उन शासन शुभचिंतकों की व्यवस्था को तोड़-फोड़ दर दर में विभाजित कर दी। बस उस दिन से ही जैन समाज के दिन बदल गये और गच्छ मेद का कलह पैदा होगया। अतः उन दूरदर्शी श्रावार्यों की व्यवस्था ममत्व भाव की नहीं पर शासन को व्यवस्थित रखने की ही थी। २-दूसरी एक घटना ऐसी भी लिखी है कि भिन्नमाल के राजा भाण के बहुत राणियें होने पर भी उसके कोई संतान नहीं थी जब एक निमित्त शास्त्र के वेत्ता से पूछा तो उसने अपने निमित्त बल से कहा कि उपकेशपुर में ओसवाल जाति का जगमाल श्रेष्टि है उसको कन्या रत्नाबाई जो कि बहुत गुणांलंकृत है उसके साथ राजा का विवाह हो तो राजा के सन्तान हो सकती है। राजा भांण ने श्रेष्टिवर्य से रत्ना बाई की याचना की, पर सेठ साहब ने इन्कार कर दिया । तब राजा ने एक वैश्या को धन का लोभ देकर उपकेशपुर भेजी। उसने रत्नाबाई से गुप्त बात की पर रत्नाबाई ने कहा कि यदि राजा के साथ मेरी शादी हो जाय और शायद मेरे पुत्र भी हो जाय परन्तु दूसरी राणियों के पुत्र होगा तो राज का मालिक वह होगा तो फिर मेरे पुत्र की और मेरो क्या दशा होगी, अतः राजा इस बात को स्वीकार करें कि मेरे पुत्र हो तो राज्याधिकार उसोही दिय जाय दूसरे को नहीं तो मैं शादी करने को तैयार हूँ । वैश्या ने राजा के पास जाकर सब हाल निवेदन किया जिसको राजा ने स्वीकार कर लिया क्योंकि गरजवान क्या नहीं करता है । बस गजा रूप बदल कर वैश्या के साथ उपकेशपुर गया और रत्नाबाई को गुप्तरूप से लेकर भिन्नमाल आया और बड़े ही समारोह से उसके साथ शादी करनी। प्रस्तुत पट्टावली पृट इस घटना से पाया जाता है कि विक्रम की आठवीं शताब्दी में उपकेशपुर उपकेशवंशियों से फला फूला आबाद था। ६-जैन धर्म का प्राचीन इतिहास श्रीमहावीर स्वामीना निर्वाण पछी सीचेर वर्ष बाद श्री पार्श्वनाथ संतानो मां छट्टी पाटे श्रीरत्नप्रभसूरि नामे आचार्य थया । तेमणे उपकेशपट्टण नामना नगरमाँ श्रीमहावीरस्वामीनी प्रतिमानी प्रतिष्ठा करी । तथा ओश्या नगरीमा क्षत्रियनी जातिओने प्रतिबोधीने ओशवालोनी स्थापना करी, अने श्रीमाल नगर माँ श्रीमालिओनी स्थापना करी। जैन इतिहास पृष्ट १७ भावनगर से प्रकाशित ७--भारतवर्ष का प्राचीन इतिहास डाक्टर त्रिभुवनदास लेहरचन्द बड़ोदा वालों का मत है कि: २३ माँ तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ संतानीयामाँ छठी पेढ़ी थयेला रत्नप्रभसूरि नामना आचार्य हता तेमणे लाखोनी संख्यामाँ जैनो बनाव्या हता।" प्राचीन भारतवर्ष भाग बीजो पृष्ठ १७६ श्रोसवालों की उत्पत्ति पोरवालों के समकालीन हुई है । जब पोरवालों के अस्तित्व का प्रमाण मंत्री विमल के पूर्वज लेहरी नानग का समय विक्रम की आठवीं शताब्दी और जावड़ का समय विक्रम की पहिली शताब्दी का लिलता है तब ओसवाल ज्ञाति को ही अर्वाचीन क्यों मानी जाय अर्थात् ओसवाल ज्ञाति का समय व०पू० ४०० वर्ष का मानना न्यायसंगत ही है इसी प्रकार श्रीमाली जाति के अस्तित्व का प्रमाण मिलता है कि वि० सं० ७९५ में प्राचार्य उदयप्रभसूरि ने श्रीमाल के ६० कोटिधीशों को जैन बना Jain १४Cn international wwwwwwwwww For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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