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ओसवाल जाति की ऐतिहासिकता ]
[वि० पू० ४०० वर्ष
इसी प्रकार जैन श्वे० कान्फ्रेंस हेरल्ड अखबार पृष्ठ ३३० में मुद्रित तपागच्छ की पट्टावली में भी प्राचार्य रत्नप्रभसूरि द्वारा श्रोसवंश की उत्पत्ति लिखी है।
५--आंचलगच्छ पट्टावली
पार्श्वनाथजीनी पाटे छट्ठा श्राचार्य श्रीरत्नप्रभसूरिजी के उपकेशपट्टन मां महावीर स्वामि नी प्रतिमा नी प्रतिष्ठा करी तथा ओशयां नगरी मां ओशवालों नी तथा श्रीमाल नगरमा श्रीमाली नी स्थापना करी।
हीरालाल हंसराज कृत जैनधर्म का इतिहोस पृष्ठ १४० श्री महावीर प्रभु थी सीत्र वर्षों गया बाद श्री पार्श्वनाथ प्रभुनी छट्ठी पाटे स्थविर श्रीरत्नप्रभनामना आचार्य थया । तेमणे उपकेश नगर मां अक लाख असी हजार क्षत्रिय पुत्रों ने प्रतिबोध्या, अने तेश्राओ जैन धर्म स्वीकारवा थी तेओने तेमणे उपकेश (ओसवाल) नामना वंशमा स्थाप्या। आंचलगच्छ महोटी पट्टावली पृष्ठ ५
पं० हीरालाल हंसराज जामनगर वालों ने श्रांचलगच्छ बड़ी पट्टावली का गुजराती भाषान्तर किताब के पृष्ट ७८ पर कुछ ऐतिहासिक घटनायें लिखी हैं जिसके अन्दर से कुछ सार हिन्दी में यहां उद्धृत कर दिया जाता है।
१-भिन्नमाल नगर के राजा भाण ने जब शत्रुजय का संघ निकालने की तैयार की तो प्रस्थान के समय संघपति के तिलक करने के विषय एक ऐसा मतभेद खड़ा हुआ कि राजा भाण के प्रतिबोधक गुरु तो उदयप्रभसूरि थे और इनके संसार पक्ष के काका ने दीक्षा ली उनका नाम सोमप्रभसूरि था । सोमप्रभसूरि ने अपने भतीजपने का हक लगा कर तिलक करना चाहा पर अन्य बहुत प्राचार्यों की सम्मति से यह निर्णय हुआ कि संघ प्रस्थान का तिलक एवं वासक्षेप उदयप्रभसूरि ही दे सकेंगे क्योंकि राजा भाण को धर्मबोध उदयप्रभसूरि ने ही दिया था।
इस निर्णय के पश्चात भी सब आचार्यों की सम्मति से एक लिखिति कर लिया कि जिस आचाय के प्रतिबोधक श्रावकसंघ निकालें या मन्दिर मूर्तियों की प्रतिष्ठा करावें तो उस कार्य में उन आचार्य तथा उनकी संतान का ही प्रधानत्व रहेगा जिन्होंने उनके तथा उनके पूर्वजों को प्रतिबोध देकर श्रावक बनाया इत्यादि । इस लिखित में हस्ताक्षर करने वाले श्राचार्यो के नाम इस प्रकार लिखे हैं। १-नागेंन्द्रगच्छीय सोमप्रभाचार्य २-ब्राह्मणगच्छीय जिज्जगसूरि ३-उपके शगच्छीयांस द्वसूरि ४-निर्वृत्तिगच्छोय महेन्द्रसरि ५ विद्याधरगच्छीयहरियाणांदसूरि ६-सांडोरगच्छीयईश्वरसूरि ७ वृहद्गच्छीय उदयप्रभसूरि ८-आह सूरि ९-आद्रसूरि १०-जिनराजसूरि ११- सोमराजसूरि १२-राजहं ससूरि १३-गुणराज सूरि १४-पूर्णभद्रसूरि १५ - हसति नकसूर १६-प्रभारत्नसूरि १७-रंगराजसूरि १८-देवरङ्गसूरि ११देवाणं दसूरि २० -- महेश्वरसूरि २१ --ब्रह्मसूरि २२-विनोदसूरि २३ --कर्मराजसूरि २४-तिलकसूरि २५ - जयसिंहसूरि २६-विजयसिंहसूरि २७ -नांमिगसूरि २८-भीमराजसूरि २९-जयतिलकसूरि ३०-चंद्रहससूरि ३१--वीरसिंहसूरि ३२-रामप्रभसूरि ३३-श्रीकर्णसूरि ३४ - विजयचंद्रसूरि तथा३५ - अमृतसूरि ।
इनके अलावा गजा भाण तथा श्रीमाली जोगा, राजपूर्ण और श्रीकर्णादि संघ अग्रेश्वरों के भी हस्ताक्षर करवाये गये थे, अतः यह मर्यादा चिरकाल तक पालन की गई थी और संघ में अच्छी शान्ति भी बनी रही थी।
तक-उस समय के प्राचार्यों को श्रावकों के लिये इतना ममत्व था कि जिसके लिये लिखित बनाना पड़ा।
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