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आचार्य रत्नप्रभसूरि का जीवन ]
[ ओसवाल संवत् १८७
जैसे आचार्यों के आपस में धर्म स्नेह एवं वात्सल्यता थी वैसे ही दोनों ओर के मुनिवर्ग में भी खूब धर्म प्रेम था एक दूसरों के गुणों का अनुमोदन कर रहे थे 'तप संयम ज्ञान ध्यान विनय व्यावच्च एवं धर्म प्रचार की बातें हो रही थी पर कोई किसी को यह नहीं पुच्छता था कि आप किस गच्छ कुल शाखा एवं समुदाय के हैं एवं आप कौन कौनसी क्रियाए-समाचारी करते हैं कारण मोक्षाभिलाषियों को इन बातों से क्या प्रयोजन था क्योंकि जिसका जैसा क्षयोपशम है वह वैसा ही करता है कारण एक कार्य के अनेक कारण हो सकता है और जैसी जैसी जिनकी रुची है वह उसी माफिक करता है पर सब का ध्येय तो एक ही था कि जन्ममरण के दुःखों से मुक्त हो अक्षय सुख अर्थात् मोक्ष प्राप्त करना ।
आज उज्जैन नगरी एक तीर्थ धाम बन गया है हजारों मुनि महात्मा नजदीक एवं दूर-दूर से चल कर उज्जैन नगरी की ओर आ रहे हैं राजा की उदार भावना ऐसी थी कि बिना किसी पक्षपात सब महात्माओं का यथोचित सन्मान एवं सत्कार किया जाता था।
पहले से जो समय निश्चित किया था वहाँ तक विशाल संख्या में श्रीसंघ एकत्र हो गया था अतः सम्राट् सम्प्रति की ओर से सभा के लिये सब को सन्मान पूर्वक श्रामन्त्रण भेजा गया और बड़े ही उत्साह के साथ श्रीसंघ एकत्र हुआ आचार्य सुहस्तिसूरि उस सभा के प्रमुख थे-मंगलाचरण के पश्चात् प्राचार्य रत्नप्रभसूरि ने सभाका उद्देश्य कह सुनाया और प्राचार्यसुहस्तिसूरिने अपनी ओजस्वो वाणि द्वारा इस प्रकार का उपदेश दिया कि उपस्थित लोगों के मन मन्दिर में जैनधर्म प्रचार की बिजली चमक उठी पुनः सूरिजी ने कहा कि जैनधर्म एक विश्वव्यापि धर्म है और एक समय वह था कि विश्वमात्र जैनधर्मोपासक था पर काल की कूटल प्रभा से एक ही धर्म से अनेक पन्थ पैदा होकर भद्रिक जनता को अपने-अपने मत पन्थ में जकड़ कर समार्ग भूला दिया और उन्मार्ग के पथिक बना दिये । इसमें थोड़ा बहुत प्रमाद साधुओं का भी कहा जा सकता है कि उनका कम भ्रमण होने से ही अधर्म का जोर बढ़ गया है यदि साधु प्रत्येक प्रान्त में घूम-घूम कर उपदेश देते रहे तो न तो धर्म में शिथिलता आती है और न अधर्म का प्रचार ही होता है। उदाहरण की तौर पर देखिये भगवान पारवनाथ के संतानिये आचार्य स्वयंप्रभसूरि रत्नप्रभसूरि इधर मरूधर की ओर पधारे थे उन्होंने कहाँ तक जैनधर्म का प्रचार किया कि आज मरूधर सिन्ध कच्छ सौराष्ट्र लाट एवं पंचालादि प्रान्तों में जैनधर्म का काफी प्रचार हो गया है इसी प्रकार आर्य भूमि तो क्या पर अनार्य भूमि में भी जैन श्रमणों का विहार होता रहे तो मुझे आशा ही नहीं पर दृढ़ विश्वास है कि जैनधर्म का सतारा फिर से चमकने लग जाय पर इस कार्य में केवल एक श्रमणगण ही पर्याप्त नहीं है पर इसमें गृहस्थों एवं राजाओं की भी आवश्यकता है अतः रथ चलता है वह दो पइयां से ही चलता है मेरा विश्वास है कि उपस्थित श्रमणसंघ इसके लिये तैयार हो और राजा सम्प्रति इस कार्य को अपने हाथ में ले तो यह कार्य आसानी से सफल हो सकता है इत्यादि इस सभा एवं धर्म प्रचार का विवरण हम सम्राट् सम्पति के जीवत में लिख आये हैं अर्थात् सूरिजी एवं सम्राट् के प्रयत्न से भारत और भारत के अतिरक्त पाश्चात्य प्रदेशों में जैनधर्म का खूब जोरों से प्रचार हुआ था।
प्राचार्यरत्नप्रभसूरि कई अर्सा तक वहां ही विराजे बाद आर्य सुहस्तिसूरि से कहा कि यदि हमारी एवं हमारे साधुओं की जब कभी आवश्यकता हो एवं आप सूचना करावे कि हम जहाँ फरमावे वहाँ जाने
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