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________________ वि० पू० २१३ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास को तैयार है। इस पर प्राचार्य सुहस्तिसूरि ने कहा महात्माजी श्राप तो यों ही धर्म प्रचार में ही लगे हुए हैं फिर भी ऐसा मौका होगा तो आप क्या और मैं क्या सब इस कार्य के लिये तैयार ही हैं। आचार्य रत्नप्रभसूरि कई अर्मा तक आवंति प्रदेश में भ्रमन कर जनता को धर्मोपदेश सुनाया बाद में लाट सौराष्ट्र की ओर विहार किये और वहां जो पहले से आपके साधु साध्वियों विहार करते थे उनकी सार संभार कर तथा तीर्थधिराज की यात्रा भी की बाद कन्छभूमि में पधारे कई वर्ष वहां धर्म प्रचार किया तत्पश्चात सिन्ध प्रदेश में पदार्पण किया आपके पधारने से वहां की जनता में खूब ही धर्मोत्साह बढ़ गया वहां भी आपके साधु साध्वियें विस्तृत संख्या में विहार करते थे जब उन्हों को मालुम हुआ कि हमारे पूज्य आचार्य रत्नप्रभसूरि का पधारना सिन्ध में हो रहा है वे लोग मुड के अँड सूरिजी के दर्शनार्थ आने लगे जहां सूरिजी का पधारना होता था वहां एक प्रकार का मेला ही लग जाता था आचार्यश्री का व्याख्यान इतना तो प्रभावोत्पादक एवं रोचक पाचक था कि अनेक भव्यों ने मिथ्यामत को त्याग कर जैनधर्म को स्वीकार कर लेते थे कई भव्यों ने सूरिजी के पास जैनधर्म की दीक्षा भी ली थी सिन्ध भूमि के सुपुत्रों ने व पर कल्याणार्थ जैन मंदिरों के निर्माण भी करवाये थे जिसकी प्रतिष्ठा भी सूरिजी के कर कमलों से हुई इसी प्रकार सूरिजी महाराज कई अर्सा तक सिन्ध भूमि में परिभ्रमण कर जैन धर्म की खूब ही जागृति एवं उन्नति की तत्पश्चात सूरिजी महाराज पंचाल को पावन बनाने की गरज से उस तरफ विहार किया। अहा-हा पूर्व जमाने के आचार्यों की क्या ही सुन्दर प्रवृति थी कि वे एक ग्राम नगर या एक प्रांत में न रहकर हर समय घूमते ही रहते थे वे नये जैन बनाते थे पर पूर्व बने हुए जैनों को भी नहीं भूलते थे उनकी भी सार संभार का पूरा प्रयत्न रखते थे इस प्रकार भ्रमन करने से साधुओं को भी बड़ा भारी लाभ था उनका चरित्र सदैव निर्मल रहता था ममता तो उनके नजदीक भी नहीं फटकती थी उपकार करने में उत्साह बढ़ता रहता था इत्यादि अनेक फायदे थे और इसी प्रकार नये २ मुनियों के पधारने से श्रावक लोगों के भी भाव बढ़ते रहते थे यही कारण है कि दिन ब दिन जैन धर्म उन्नति दशा को पहुँचता जा रहा था। सूरिजी महाराज जब पंचाल में पदार्पण किया तो वहां की समाज में हर्ष का पार नहीं रहा प्राम नगर में आपका अपूर्व स्वागत होता था व्याख्यानों की तो सर्वत्र धूम मच जाती थी वहां विहार करने वाले साधु साध्वियें आपश्री के दर्शनार्थी आया करते थे आपश्री ने कई अर्सा तक पंचाल में विहार कर वहां की जनता का जीवन धर्म मय बना दिया। जब से सृरिजी आचार्य पदारुढ़ हुए तब से ही आप अपना जीवन जैनधर्म के अभ्युदय के हित व्यतीत कर रहे थे आप चाहे किसी प्रान्त में विहार क्यों न करें पर कोई भी प्रान्त साधुओं से शून्य नहीं रखते थे इतना ही क्यों पर समयानुसार योग्य साधुओं का सत्कार करने को कई को उपाध्याय कई को पण्डित कई को वाचक कई को गणि आदि पदवियों से भूषित कर उनको प्रत्येक प्रान्तों में प्रचार निमित भेज दिया करते थे वह भी हमेशा के लिये एक ही प्रान्त में नहीं पर समय समय पर रहो. बदल भी किया करते थे कि उन साधुओं के क्षेत्र एवं उपासकों के प्रति राग द्वेष एवं ममत्व भी नहीं बढ़ सके तब ही तो वे एक आचार्य इतनी प्रान्तों को संभाल सकते थे और आपका एवं साधुओं का शांतिमय जीवन बना कर कल्याण साधन करते हुए जन धर्म का प्रचार कर पाये थे। एक समय आप लोहाकोट नगर में चतुर्मास किया और हमेशा जैनागामों का व्याख्यान फरमाते थे राजा मंत्री एवं नागरिक लोग भ्रमर मक्रन्द की भांति वाणि सुधा रस पान कर रहे थे एक दिन के व्या Jain Ed international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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