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________________ वि० पू० २१३ वर्ष [ भगवाज् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास हो गया है अतः सम्भव ही नहीं पर दृढ़ विश्वास है कि ऐसे धर्म प्रचारकों के सहयोग से आपको कार्य अवश्य सफल होगा इत्यादि । प्राचार्य रत्नप्रभसूरि ने कहा सूरिजी महागज मैं इतनी प्रशंसा के योग्य नहीं हूँ। हां आचार्य स्वयंप्रभसूरि रत्नप्रभसूरि आदि ने इन प्रान्तों में आकर कई राजाओं को जैन बनाकर एक वृक्ष लगा दिया जिसके सुन्दर एवं स्वादिष्ट फल हम चख रहे हैं अतः कृतज्ञ पुरुषों का खास कर्तव्य है कि उन महान उपकारी पुरुषों का उपकार माने और इस प्रकार उपकार मानने से ही धर्म की वृद्धि एवं प्रचार होता है । रत्नप्रभसूरि ने कहा पूज्याचार्य महाराज, इस समय आप भी तोबड़े ही भाग्यशाली हैं कि इस प्रकार जैनधर्म के प्रचार के लिए प्रयत्न कर रहे हैं जिसको सुन व देखकर जैनसमाज को बड़ा ही हर्ष होता है । राजा सम्प्रति ने कहा कि पूज्यवर ! आपकी और आपके पूर्वजों की हम कहां तक प्रशंसा करें भले आज वे प्रान्तों सुलभ हो गई हों पर जब पहले पहले उन आचार्यों को कितना कष्ट सहन करना पड़ा होगा मैं तो समझता हूं कि उस समय वे क्षेत्र अनार्यों के सदृश ही होगा जिसमें इस प्रकार धर्म का प्रचार करना कोई साधारण सी बात नहीं कही जाती है अतः उन पूज्याचार्यों का जितना उपकार माना जाय वह थोड़ा ही है इत्यादि खूब तारीफ की। ___ आचार्यरत्नप्रभसूरि ने कहा राजन् ! आप भी बड़े ही भाग्यशाली हैं कि आपको आचार्यसुहस्तिसूरिजैसे प्रतिभाशाली आचार्य का सहयोग मिला है और विशेषता में आपने जैनधर्म प्रचार के हित सभा करने का निश्चय किया यह भी एक शासन के अभ्युदय का ही कारण है पूर्व जमाना में भी समय-समय इस प्रकार सभाए हुआ करती थी सुना जाता है कि आपके पूर्वज सम्राट चन्द्रगुप्त के शासन में पाटली त्र नगर में भी एक श्रमण सभा हुई थी और उसमें जैनागमों की ठीक व्यवस्था ही की गई थी। आचार्य यक्षदेवसूरि आदि आचार्यों ने भी कई स्थानों पर इस प्रकार सभाएँ कर जैनधर्म का प्रचार किया था और आपके पितामहा सम्राट अशोक ने भी एक बोध भिक्षुओं की सभा की थी और उन भिक्षुओं को अपने धर्म का प्रचार करने के लिये साहसिक बना कर अनेक प्रान्तों में उपदेश के लिये भेजे थे अतः राजाओं का यह खास कर्त्तव्य है कि इस प्रकार सभाओं कर जनता में धर्म का प्रचार करे और उसी मार्ग का आपने अनुकरण किया यह खास प्रशंसनीय है और जहाँ हम लोगों का काम हो हम करने को कटिबद्ध तैयार हैं इतना ही क्यों पर जैनधर्म के प्रचार के लिये कितने ही परिसह एवं कठिनाइयां क्यों न उपस्थित हो जाय पर उसकी परवाह न कर हम प्राण प्रण के साथ धर्म प्रचार के लिये हर समय तैयार हैं इत्यादि :--- आचार्य सुहस्तिसूरि और राजा सम्प्रति सूरिजी के वीरतामय वचन सुन कर मन्त्र मुग्ध बन गये और राजा ने कहा पूज्यवर ! आपके अमृतमय वचन सुन मुझे निश्चय हो गया है कि मेरा धारा हुआ कार्य अवश्य सफल होगा कारण आप जैसे सूरीश्वरों का शुभागमन हो गया है और आपके केवल हृदय में ही नहीं पर नस-नस एवं रोम रोम में जैन धर्म का प्रचार की भावना ठुसठुस कर भरी हुई है रही कारण है कि इस भावना से ही आप मरुधर और सिन्ध जैसे मांसाहारी पाखण्डियों के प्रदेश में भी जैनधर्म का काफी प्रचार कर दिया है दूसरे श्रापकी विनय प्रवृति और वात्सल्यता ने भी मेरे हृदय पर कम प्रभाव नहीं डाला है जिसका मैंने प्रत्यक्ष में अनुभव कर लिया है इत्यादि । वार्तालाप के बाद राजा सम्प्रति सूरियों एवं मुनिवरों को वन्दन कर विदा ली। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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