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आचार्य रत्नप्रभसरि का जीवन ]
[ औसवाल संवत् १८७
स्मरण ज्ञानोत्पन्न हो गया इस विषय में हम पहिले विस्तार से लिख आये हैं कि आर्य सुहस्ति ने राजा सम्प्रति को जैन धर्म में दीक्षित किया और सम्राट ने जैनधर्म का प्रचार निमित्त उज्जैन नगरी में एक जैन सभा की आयोजन किया था और इसके लिए बहुत दूर दूर तक अपने आदमियों के साथ आमन्त्रण भी भिजवाया था जिसमें एक आमन्त्रण मरुधर प्रान्त में विहार करने वाले आचार्य रत्नप्रभसूरि को भी भेजा था आचार्य रत्नप्रभसूरि उस आमन्त्रण को पढ़ कर बड़े ही हर्ष के साथ आवंती की ओर विहार कर दिया क्यों न करें जैनधर्म के प्रचार हित कौन पीछे रह सकते हैं जिसमें भी आप के तो पूर्वजों से ही क्रमशः यह प्रवृति चली आ रही थी। अतः ऐसे सुअवसर में वे कब पीछे रहने वाले थे ।
आचार्य रत्नप्रभसूरि अपने विद्वान शिष्यों के साथ क्रमशः विहार करते हुए उज्जैन नगरी के नजदीक पधार रहे थे तो राजा सम्प्रति और आर्य सुहस्तिसूरि को मालूम हुआ कि मरू प्रदेश की ओर से आचार्य रत्नप्रभसूरि पधार रहे हैं अतः राजा ही क्यों पर नगरी भर में बड़ी खुशियें मनाई जाने लगी और श्राचार्य सुहस्तिसूरि ने विचार किया कि पार्श्वनाथ के सन्तानिये मरुधर पंचालसिंध कच्छ वगैरः बहुत से प्रांतों में तंत्रिको एवं नास्तिको और मांसाहारियों के प्रदेशों में अहिंसा एवं जैनधर्म का जोरों से प्रचार किया है पूर्व जमाने में गणधर गौतमस्वामी भी केशीश्रमणाचार्य की स्वागत के लिये चलकर गये थे तो ऐसे जैनधर्म के प्रचारकों का स्वागत करना मेरा भी खास कर्तव्य है अतः राजा प्रजा के साथ सूरिजी भी अपने शिष्यों के साथ सामने गये और बड़े ही महोत्सव के साथ सूरिजी का नगर प्रवेश करवाया सकल श्रीसंघ के साथ जीवित स्वामी के दर्शन कर जहां श्राचार्य सुहस्तिसूरि ठहरे हुए थे वहाँ पधार कर दोनों आचार्य एक तख्त पर विराजमान हो मंगलाचरण के साथ थोड़ी पर सारगर्भित देशना दी जिससे राजा प्रजा पर बहुत अच्छा प्रभाव हुआ अन्त में भगवान महावीर की जयध्वनि के साथ सभा विसर्जन हुई।
जब निवृति के समय दोनों आचार्य आपस में वार्तालाप करने के लिये विराज मान थे उस समय राजा सम्प्रति सूरिजी को वन्दन तथा नये पधारे हुए आचार्यरत्नप्रभसूरि के दर्शनार्थ आये थे । वन्दन किया और विहार की सुख सात पुछका बैठ गया । आचार्य सुहस्तिसूरि ने राजा सम्प्रति को सम्बोधन करके कहा कि यह आचार्य रत्नप्रभसूरि भगवान पार्श्वनाथ के सन्तानिये हैं इनके पूर्वजों ने मरुधरादि प्रदेशों जहाँ यज्ञ बादी तांत्रिकों एवं नास्तिकों का साम्राज्य था वहां अनेक परिसहों एवं कठिनाइयों को सहन करके तथा चार चार मास तक भूखे प्यासे रह कर वहां के राजा प्रजा को धर्मोपदेश देकर जैनधर्म में दीक्षित कर महाजन संघ की स्थापना रूप एक कल्पवृक्ष लगा दिया है और पीछले आचार्यों ने उनका सींचन एवं पोषण किया जिसका ही फल है कि मरू सिन्ध कच्छ सोरष्ट्र लाट और पंचाल देश में श्राज लाखों मनुष्य जैनधर्म की आराधना कर रहे हैं जैसे आचार्य रत्नप्रभसूरि यज्ञदेवसूरि कक्कसूरि देव गुप्तसूरि और सिद्धसूरि नाम के महान प्रभाविक जिनशासन के स्तम्भ और जैनधर्म के प्रचारक हुए हैं इसी प्रकार यह रत्नप्रभसूरि (द्वितीय) भी एक प्रभाविक आचार्य हैं उन प्राचार्यों के उपकार से जैन समाज कभी उऋण नहीं हो सकता है इतना ही क्यों पर इन महात्मात्रों ने पूर्वोक्त प्रान्तों में हजारों मंदिर मूर्तियों की प्रतिष्ठा करवा कर जैन धर्म को चिरस्थायी बना दिया है अतः आपको जितना धन्यवाद दिया जाय एवं प्रशंसा की जाय उतना ही थोड़ा है। फिर भी अधिक हर्ष इस बात का है कि आपका आमन्त्रण पा कर इन महात्माओं का यहां पधारना
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