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________________ आचार्य देवगुप्तसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ११२ कोनेक विघ्न उपस्थित किये थे। जिनको सूरिजी ने अपनी सहन शीलता से सहन किया । सूरिजी की सहन शीलता पृथ्वी से भी विशेष थी। क्योंकि कभी कभी पृथ्वी भी अपने धैर्यता को छोड़ कर क्षोभ को प्राप्त हो जाती है। परन्तु सूरिजी अपने पथ से कभी चलायमान नहीं होते थे। हां समुद्र हमेशा अपने गाम्भिर्यादि गुणों से प्रसिद्ध है परन्तु उसके अन्दर भी कभी २ उच्छृङ्खलता आ जाती है । पर सूरिजी के गाम्भिर्यादि गुणों के सामने पाखण्ड सदैव नतमस्तक हो जाते थे । यही कारण है कि सूरिजी महाराज अपने अलौकिक गुणों से या पूर्ण परिश्रम से अपने कृत कार्य में खूब गहरी सफलता प्राप्त कर ली थी। अर्थात् मनुष्य एवं पशु जैसे प्राणियों की बलि को सर्वत्र बन्द करवा कर अहिंसा भगवती का सर्वत्र साम्राज्य स्थापित करवा दिया था । जैसे सूरिजी ने अनेक आचार-पतित लोगों को जैन धर्म की शिक्षा-दीक्षा देकर जैन उपासकों की संख्या में वृद्धी की इसी प्रकार जैन-श्रमण संघ की भी खूब ही वृद्धि की। और उन श्रमणों को पृथक्-पृथक् प्रान्त प्राम एवं नगरों में विहार करवा के जैनधर्म की नाव को मजबूत बना दी थी और आपका प्रचार कार्य हमेशा बढ़ता ही रहता था अत: जिन्हों के हृदय में जैनधर्म का गौरव है उनके लिए ऐसा होना स्वभाविक ही था। ___ एक समय सूरिजी महाराज ने अपने शिष्यों के सहित सिन्ध की ओर विहार किया। जब आपके चरणाविन्द सिन्ध भूमि की ओर हुए तो वहां की जनता में उत्साह का समुद्र उमड़ उठा । जहाँ जहाँ सूरिजी महाराज का पदार्पण होता था वहाँ २ भक्त लोगों का समूह एकत्रित हो जाता था। आपका व्याख्यान हमेशा त्याग वैराग्य एवं तत्व-ज्ञानमय होता था कि जिसको सुन कर जनता की आत्मा कल्याण की ओर विशेष जागृत हो जाती थी। एक समय का जिक्र है कि पांचाल देश का एक कर्मशाह नाम का व्यापारी व्यापारार्थ सिन्ध प्रान्त में आया था। जब उसने सुना कि यहां पर जैनाचार्य देवगुप्तसूरिजी अपने विस्तृत शिष्यों के साथ विराजते हैं और हमेशा धर्मोपदेश भी देते हैं अतः वह भी चल कर सूरिजी के व्याख्यान में आया। उस समय व्याख्यान “अहिंसा परमोधर्मः" पर हो रहा था। सूरिजी ने इस प्रकार का व्याख्यान दिया कि कितना ही हिंसक एवं मांस-भक्षी क्यों न हो परन्तु एक वार सूरिजी का व्याख्यान श्रवण कर लिया है उस मनुष्य के हृदय में दया के अंकुर उत्पन्न हुए बिना कभी नहीं रहता था। इसी प्रकार जब कर्माशाह ने सूरिजी का व्याख्यान श्रवण किया और व्याख्यान की समाप्ति के बाद उसने सूरिजी से प्रार्थना की कि हे पूज्यवर ! आपश्री का हमारे देश की ओर पधारना हो तो बहुत उपकार हो सकता है कारण यहां के लोग विशेष मांसाहारी हैं । और उन लोगों को उपदेश भी इसी प्रकार का मिलता है कि हर समय यज्ञ करना और उन यज्ञों में हजारों जीवों की बलि देना । इतना ही क्यों पर अभी कुछ अर्सा से एक सिद्धपुत्र नामक यज्ञाचार्य हमारे यह भ्रमण कर यज्ञ का खूब जोरों से प्रचार कर रहे हैं । और प्रायः राजा, प्रजादि सब लोग उनका मत के अनुयायी भी बन चुके हैं। अब यह भी सुना गया है कि सिद्धपुत्राचार्य सिंध की तरफ भी भ्रमण करने वाले हैं। क्योंकि उसने सुना है कि सिंध में जैनाचार्य यज्ञ प्रथा को बन्द करवा कर जैनधर्म का खूब जोरों से प्रचार कर रहे हैं। इसलिये मेरी आप से यह सविनय प्रार्थना है कि आप एक बार अवश्य पांचाल देश की तरफ विहार करने की कृपा करें। सूरिजी ने कर्माशाह की प्रार्थना को सुन कर कहा ठीक है । देवानुप्रिय ! यदि इस प्रकार का मौका है तो हम लोग भी उनका स्वागत करने को तत्पर हैं । सूरिजी ने अपने श्रमण संघ को बुला कर कर्माशाह ३१३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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