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________________ वि० पू० २८८ वर्ष | [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास के कथानुसार पंचाल देश के सत्र हाल पूर्णतय सुना दिया। मुनियों ने सूरिजी से कहा पूज्यवर ? सिद्धपुत्राचार्य का स्वागत यहाँ आने पर किया जाय इसकी बजाय तो वहाँ जाकर ही करना अति उत्तम रहेगा । क्योंकि एक तो हम लोग नये क्षेत्र की स्पर्शना करेंगे। दूसरे साथ २ हमको यह भी विदित हो जायेगा कि हिंसक लोग वहाँ की भोली भाली जनता को किस प्रकार कुमार्ग की तरफ ले जा रहा है । इत्यादि बाद सूरिजी ने सकलसंघ की सम्मति ली और सूरिजी ने अपने शेष साधुओं को सिन्ध में धर्म प्रचार करने की आज्ञा दे दी और आप ५०० शिष्यों को साथ में लेकर पंचाल देश की तरफ विहार करना आरम्भ कर दिया । पूथपती की भांति सूरिजी ने बिहार करते हुए एवं धर्मोपदेश देते हुए क्रमश पंचाल देश में पदार्पण कर 'अहिंसा' का खूब जौरों से उपदेश एवं प्रचार कर रहे थे और आप श्री के प्रभावशाली उपदेश का जनता पर अच्छा असर भी हो रहा था कारण जनता पहले से ही हिंसा से घृणा कर चूकी थी फिर सूरिजी महाराज के उपदेश ने तो और भी कमाल कर दिया । इधर सिद्धपुत्राचार्य ने सुना कि सिन्ध की ओर से एक जैनावार्य हिंसा का प्रचार एवं यज्ञ का निषेध करता हुआ पंचाल की ओर आ रहा हैं अतः यह बात उन से सहन नही हुई अतः वे अपने शिष्यों साथ भ्रमण करते हुए क्रमशः सावत्थी नगरी में आ पहुँचे जो उस समय पंचाल की मुख्य राजधानी थी । इधर आचार्य देवगुप्तसूरि भी अपने ५०० शिष्यों के साथ विहार करते हुए क्रमशः सात्वी नगरी में पधार गये । और अपना व्यख्यान देना शुरू कर दिया । पाठक समझ सकते है कि एक ही स्थान में दो विरोध धर्मवाले प्राचार्य एकत्र हो जाय तो धर्मवाद खड़ा हो जाना एक स्वाभाविक बात है कारण एक ओर तो हिंसामय यज्ञ की पुष्ठी का उपदेश जब दूसरी और अहिंसामय सर्व चराचरजीवों की रक्षा का उपदेश | यही कारण है कि जनता में खासी हलचल मच गई और कई जिज्ञासु इस बात का निर्णय करने के लिये भी उत्सुक बन रहे थे पर यह कार्य साधारण नही था कि सामना व्यक्ति कर सके । धर्मवाद यहां तक बढ़ गया कि जिसकी खबर यहां के राजा के कांनों तक पहुँच गई यद्यपि राजा यज्ञ अनुयायी था पर वह था सत्य का उपासक । राजा ने सोचा की धर्म का विवाद सहज ही में बढ़ जाता है और इस कारण भद्रीक लोग आपस में लड़ घड़ कर अपनी शक्ति का दुरूपयोग कर बैठते है अतः मेरा कर्तव्य है कि मैं दोनों आचार्यों को आमन्त्रण दे कर सन्मानपूर्वक बुलाऊँ और धर्म के विषय में निर्णय के लिये प्रार्थना करू और राजा ने ऐसा ही किया एवं राजा की प्रार्थना को दोनों आचार्यों ने सहर्ष स्वीकार कर लिया बस । वायु की भांति नगर में सर्वत्र यह बात फैलगई कि कल राजसभा में दोनों धर्म के आचार्यों का शास्त्रार्थ होगा इत्यादि । ठीक समय दोनों आचार्य अपने २ विद्वान् शिष्यों साथ राजसभा में प्रवेश किया और राजा की आज्ञासे योग्य स्थान पर आसन लगाकर बैठ गये । शास्त्रार्थ सुनने के लिए लोग तो पहले से ही उपस्थित हो गये थे और राजा राजमंत्री एवं कर्मचारी लोग यथा स्थान बैठ गये । साधारण जनता से सभा हॉल खचाखच भर गया सब लोग यही उत्कण्ठा कर रहे थे कि देखें क्या शास्त्रार्थ होता है । सर्व शान्तिका साम्राज्य था जनता दोनों श्राचार्यों के सामने टकटकी लगा कर देख रही थी । अतः राजाका श्रादेश होने पर पहला श्राचार्य देवगुप्तसूरि ने अपनी मधुर ध्वनी और गम्भीरतापूर्वक कहा कि संसार में धर्म ही सार है धर्म से ही जीव उच्च पद को एवं सर्व सुख प्राप्त कर सकता है इतना ही Jain Edinternational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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