________________
आचार्य देवगुप्तहरि का जीवन ]
[ ओसवाल संवत् ११२
क्यों पर जन्म मरण के महान् दुःखों से मुक्त होकर अक्षय सुख अर्थात् मोक्ष प्राप्त कर लेता है पर पहला धर्म का स्वरूप समझ लेने की परमावश्यकता है।
धर्मका मुख्य और प्रधान लक्षण है 'अहिंसा' जहां अहिंसा है वहीं धर्म है और जहां हिंसा है वहां अधर्म है उस अहिंसा का पालन दो प्रकार से हो सकता है १-साधु जो सर्वथा प्रकार से अहिंसा का पालन करते है मन वचन काया से हिंसा नहीं करते दूसरे से करवाते नहीं और हिंसा करने वाले को अच्छा भी नहीं समझते अर्थात् अनुमोदन तक भी नहीं करते है उनका उपदेश भी अहिंसामय होता है । २-दूसरे गृहस्थ जो वे भी सर्वथा अहिंसा के पालक होते हैं पर वे गृहस्थ होने से मर्यादित अहिंसा पालन करते हैं इसमें भी अर्थादडं और अनर्थादंड के भेदों को समझ कर अनर्थादंड हिंसासे सदैव बचते रहता है जब गृहस्थ पने में अनिवार्य कार्यों में जलअग्नि श्रादि कि हिंसा होती है उसको भी वे कम करना या रोकना चाहते हैं तो धर्म के नाम पर हजारों लाखो पंचेन्द्रिय जीवों की हिंसा करना कितना अन्याय है। क्या इस घोर हिंसा से स्वर्ग मोक्ष की आशा रखी जा सकती है ? कदापि नहीं । इस प्रकार की हिंसा तो बिना किसी रोक-टोक के सीधी नरक ले जाती है । इत्यादि अनेक प्रमाण एवं युक्ति द्वारा हिंसा का खण्डन और अहिंसा का प्रतिपादन किया ! जिसको राजा प्रजा ने ध्यान लगा कर सुना !
इस प्रकार सूरिजी के निडरतापूर्वक वचन सुन कर राजाप्रजा सूरिजी के सामने देखने लगे क्योंकि उन्होंने पूर्व ऐसे वचन नहीं सुने थे । अब सिद्धपुत्राचार्य की ओर जयता का ध्यान लग रहा कि वे इसके प्रतिबाद में क्या कहेगा ? -
सिद्धपुत्राचार्य ने कहा महात्माजी ? अहिंसा के लिये कोई धर्म इन्कार नहीं करता है अर्थात् 'अहिंसापरमोधर्मः' को सब धर्मवाले मानते है जिसमें भी वेद शास्त्र तो पुकार पुकार कर कहता है कि 'अहिंसा ही परमोधर्मः है पर वेद विहत यज्ञ का आप निषेध करते हो यह ठीक नहीं है कारण यज्ञ यह एक धर्म का मुख्य अंग है इससे विश्व की शान्ति जनता का कल्याण और जिन जीवों की बली दी जाती है उनको स्वर्ग पहुँचा कर सुखी बनाते हैं अतः यज्ञ की हिंसा, हिंसा नहीं पर अहिंसा ही है इत्यादि ।
देवगुप्तसूरि-जब आपके वेदादि शास्त्र अहिंसा की पुकार करते हैं तब आप उनका पालन क्यों नहीं करते हैं ? अब रहा यज्ञ करना इसके लिये हमारा तो क्या पर किसी धर्मज्ञ पुरुषों का विरोध हो ही नहीं सकता है पर विरोध खास हिंसा का ही है यदि बली देने वाले जीवों को स्वर्ग पहुचाने का ही आपका इष्ट है तो आप स्वयं बली हो स्वर्ग के सुखों का अनुभव क्यो नहीं करते हो बली को तो दूर रहने दीजिये आपके शरीर से एक दो बुन्द खून की बहा कर बली दीजिये फिर आपको ज्ञात होगा कि बलि होने वाले जीव स्वर्ग में जाते हैं या नरक में ? महानुभाव ! स्वर्ग में जाता है समाधिमरण से तब बली दी जीने वाले जीव समाधि से मरते हैं या तड़फ २ कर मरते है ? इस पर आप जरा विचार कीजिये ?
सिद्धाचार्य-खैर कुछ भी हो यज्ञ करना तो आप स्वीकार करते हैं और यज्ञ की आहूती में पशुओं की बली देना जरूरी भी है पर ऐसा कौनसा यज्ञ है कि बिना बली दिये यज्ञ हो सकता हो ?
देवगुप्तसूरि-क्या अपके महार्षियों के वाक्य आपकी स्मृति में नहीं है कि उन्होंने यज्ञ किस प्रकार से करना कहा है यथा-सत्ययूप. तपअग्नि, कर्मपशु, अहिंसात्राहूति, पुनः जीव रूपी कुण्ड ध्यानरूपी अग्नि पांचों इन्द्रियों के विकार रूपी पशु, तपरूपी तृपण, और अहिंसा रूपी अाहूति से कर्मपुंज को जला कर
394
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
wwwRewrary.org