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________________ वि० पू० २८८ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास भस्म करना यह शुद्ध पवित्र और भाव यज्ञ है इसके करने से जीवात्मा शुद्ध पवित्र होकर स्वर्गमोक्ष का अधि कारी बन सकता है । इत्यादि ऐसे प्रमाणिक प्रमाणों द्वारा भाव यज्ञ का प्रतिपादन किया कि राजा प्रजा तो क्या पर स्वयं सिद्धपुत्राचार्य सूरिजी के वचन सुन कर विचार करने लगा कि महात्माजी का कहना तो सोलह आना सत्य है जब शास्त्रों में अहिंसा को उच्चासन दिया गया है और साथ में यज्ञ का विधान भी है तो यह दोनों का मेल कैसे खाता है पर महात्माजी के कहने से दोनों का पालन हो सकता है बस ! सत्य के उपासकों के समझ में आने पर असत्य त्यागने में और सत्यग्रहन करने में क्या देर लगती हैं । सिद्धपुत्राचार्य ने अपने अंगीकार किया हुआ मत को असत्य समझ लिया तो सर्प जैसे निर्माल्य कंचूक का त्याग कर देता है वैसे ही सिद्धापुत्रावार्य ने मत्त रूपी ममत्व की फाँस को तोड़ कर कहने लगा कि:महात्माजी ! आप का कहना सत्य है इतना दिन मेरी व्यर्थ भ्रान्ति थी कि पशु बद्ध रूपी यज्ञ करना स्वर्ग एवं मोक्ष का कारण है पर वह भ्रान्ति आज दूर हो गई है यह कदापि नहीं हो सकता है कि घोर हिंसा से कभी किसी की मुक्ति हुई हो या होगी पर आपके कथनानुसार ध्यान एवं तप द्वारा कर्म एवं विषकषाय का नाश करने से ही मोक्ष होती है और यह बात अनुभव सिद्ध भी है । देवगुप्तसूरि-यदि आपकी भ्रान्ति दूर हो गई हो तो आप मत्त एवं वेश वन्धन का त्याग कर अहिंसा धर्म के प्रचारक बन जाइये और जिस प्रकार जनता को उन्मार्ग पर लगाया इसी प्रकार उनको सद्मार्ग पर लाकर अहिंसा के उपासक बनाइये । और इस प्रकार सत्य ग्रहन करने में आत्मार्थी मुमुक्षुओं को न तो दक्षिण्यता रखनी चाहिये और देर ही करनी चाहिए महात्माजी यह अवसर केवल एक आप के लिये ही नहीं है पर पहले भी ऐसे कुछ उदाहरण बन चुके है जैसे इन्द्रभूति, अग्निभूति आदि एकदश यज्ञ नेताओं ने भगवान् महावीर के पास अपने मन की शंकाए का निवारण कर ४४०० ब्राह्मणों के साथ जैनदीक्षा स्वीकार की थी एवं यज्ञ अध्यक्ष शय्यंभव भट्ट जैसे कट्टर यज्ञ बादी ने निर्णय पूर्वक यज्ञ हिंसा को अर्थ का हेतु समझ कर आचार्य प्रभवसूरि के चरण कमलों में भगवती जैनदीक्षा को धारण की अतः आप जैसे विद्वान एवं सत्य के उपासक को सोच लेना चाहिये कि धर्म से हो सकता है इत्यादिः - आत्मा का कल्याण किस बस ! इतना कहने की ही देरी थी साहसिक सिद्धपुत्राचार्य ने उसी राज सभा में राजा एवं पूजा के समक्ष मत्त एवं वेश का त्याग कर अपने पांच सौ शिष्यों के साथ सूरिजी के चरण कमलों ने भगवती जैन दीक्षाको अंगीकार करने को तैयार हो गये । आचार्य श्री ने भी उन मुमुक्षुओं को जैनदीक्षा देकर अपने शिष्य बना लिये और कहा कि आप इन उपस्थित जनता को कुछ धर्मोपदेश दें । सिद्धपुत्राचार्य ने सूरिजी की आज्ञा शिरोधार्य करके राजा और प्रजाको कहा महानुभावों ! आप सब लोगों ने पूज्य सूरीश्वरजी महाराज का उपदेश श्रवण कर ही लिया है इनसे अधिक मैं क्या कह सकता हूँ तथापि मैं मेरे अनुभव की थोड़ी सी बात आप से सुना देता हूँ कि संसार में सच्चा धर्म कहा जाय तो एक अहिंसा परमोधर्मः ही है मैंने जो मत्त एवं वेश का परिवर्तन किया है वह किसी दक्षण्यता एवं स्वार्थ के बस नहीं किया है पर सच्चाई के नाते एवं श्रम कल्याणार्थ ही किया है आप लोग भी समझ सकते हैं कि दूसरे जीवों को कष्ट पहुँचाना भी महापाप है तो हजारों लाखों प्राणियों के प्राणों को नष्ट कर देना में तो धर्म की गन्ध ही कहाँ है हाँ जब लग जीवों के अज्ञान के पड़ल लगे हुए रहते हैं उसको हिताहित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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