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आचार्य देवगुप्तसूरि का जीवन ]
[ ओसवाल संवत् १९१२
का भान नहीं रहता है जसे थोड़ी दूर पहला मेरा हाल था पर मैं यह तो दावा के साथ कह सकता हूँ कि प्राणवच रूप यज्ञ ईश्वर के वचन नहीं पर किसी मांस भक्षी लोगों ने चलाया है क्योंकि ईश्वर के लिये तो चराचरप्राणि एक से हैं तब वह कैसे हो सकता है कि वे दयालु ईश्वर अनेक जीवों की हिंसा में धर्म बतलावें ? इत्यादि अन्त में आपने फरमाया कि आप अपना कल्याण चाहें तो तत्काल ही अहिंसा रूप धर्म को स्वीकार कर लें। जैसे मैंने किया है.
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बस ! फिर तो देरी ही क्या थी कारण जनता पहले से सूरिजी द्वारा प्रमाण एवं युक्तियों सुनकर समझ लिया था एवं घोर हिंसा और पाखण्डियों के अत्याचार से घृणा कर चुकी थी फिर सिद्धपुत्राचार्य जैसे विद्वान ने अहिंसा धर्म को स्वीकार कर लिया । अतः उपस्थित राजा प्रजा आचार्य देवतुप्तसूरि के चरणों में शिर भूका दिया और सूरिजी ने वासक्षेप के एवं मंत्रों के विधि विधान से उन सब की शुद्धि कर जैन धर्म में दीक्षित किये ।
मुनि सिद्धपुत्र पहले से ही विद्वान था फिर सूरिजी के चरण कमलों में रहकर जैनागमों का खूब श्रध्ययन कर लिया और पंचाल की भूमि में भ्रमन कर अहिंसा एवं जैनधर्म का खूब प्रचार किया । आचार्य देवगुप्तसूरि ने सिद्धपुत्रकों सर्वगुण सम्पन्न जानकर श्रीसंघ के महामहोत्सव पूर्वक आचार्य पद पर स्थापन कर उनका नाम सिद्धसूरि रक्ख दिया और उनके साथ ५०० साधुत्रों को देकर पंचालादि देशों में विहार करने की आशा दे दी और आप अपने शिष्यों के साथ हस्तनापुर शोरीपुर माथुरादि कल्याणक भूमियों की यात्रा करते हुए मरुधर की और बिहार कर दिया ।
जब घरवासियों को इस बात की खबर मिली कि आचार्य देवगुप्तसूरी मरूधर की और पधार इस बात की खुशियें मनाई जा रही थी लग गई।
रहे है तो उन्हों का उत्साह खूब बढ़ गया सम्पूर्ण मण्डल में और प्रत्येक प्राम नगर में सूरिजी की स्वागत की तैयारियें अहाहा - उस जमाना में जनता की धर्म पर कितनी श्रद्धा रूची और उत्साह था और आत्म कल्याण करने की कैसी लग्न थी ? जिसका अनुमान इन बातों से लगाया जा सकता हैं कि वे लोग बड़े उत्साह एवं धर्मप्रेमी एवं मुनियों की पूर्ण भक्ति करते थे ।
आचार्यदेवगुप्तसूरिजी अपने शिष्य मण्डल के साथ मरूभूमि को पवित्र बनाते हुए भव्य जीवों का उद्धार करते हुए क्रमशः मरूधर के भूषण रूप उपकेशपुर नगर के समीप पधार गये सूरिजी के दर्शन के लिये कोशों तक मनुष्यों का तांता सा लग गया और वहाँ का राजा सारंगदेव आदि श्रीसंघ ने सूरिजीमहाराज का आलीशान स्वागत किया सूरिजी चतुर्विध श्रीसंघ के साथ भगवान महावीर एवं प्रभु पार्श्वनाथ और आचार्य रत्नप्रभसूरि की यात्रा करके उपाश्रय में पधारे और वहाँ मंगलाचारण के पश्चात् थोड़ी पर सारगर्भितनदेशना देते हुए फरमाया कि वास्तव में उपकेशपुर के लोग बड़े ही भाग्यशाली है कि यहाँ आचार्यरत्नप्रभसूरि का शुभागमन हुआ और उन महापुरुषों के उपदेश से राजा उत्पलदेव मंत्री ऊहड़ादि लाखों वीर क्षत्रियों ने मांस मदिरादि दुर्व्यसन को त्याग जैन धर्म स्वीकार किया अत: आज मुझे भी इस तीर्थ रूप क्षेत्र की स्पर्शना का शोभाग्य प्राप्त हुआ हैं इत्यादि:
राजा सारंगदेव ने श्री संघ की और से सूरीजी का अभिवादन करते हुए कहा है कि आचार्य रत्नप्रसूरि का तो इस प्रदेश पर महान उपकार हुआ ही है । पर आप श्रीमान हम लोगों पर कृपा कर समय
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