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________________ औसवाल जाति की ऐतिहासिकता ] [ वि० पू० ३०० वर्ष इन्द्रियजन्य सुख से रहित केवल महाकष्ट रूप परम्परा नहीं चला सकता है । इस वास्ते जैनधर्म का संघदाय धूर्त का चलाया हुआ नहीं किन्तु श्रष्टादश दूषण रहित अत् का चलाया हुआ है । जैन विषयक प्रश्नीचर नमक अन्य पृष्ठ ७७ २- श्राचर्य श्रीविजयने मिसूरिश्वरजी जब पालड़ी के संघ के साथ जैसलमेर पधार रहे थे ओसियाँ तीर्थ पर आपके दर्शन हुए और रत्नप्रभसूरि के विषय में वार्तालाप हुआ तो आपने फरमाया कि आचार्य रनभसूरि जो भगवान पार्श्वनाथ के छुट्टे पाट पर हुये उन का जैन समाज पर बड़ा भारी उपकार है कि उन्होंने इसी ओसियां नगरी में ओसवालवंश की स्थापना की थी इत्यादि । ३- ववृद्ध मुनिश्री सिद्धविजयजी महाराज जो लोहार की पोल के उपाश्रय विराजते थे जब एक मंदिर में पूजा पढ़ाई जा रही थी वहाँ मैं भी गया और करीब ७५ साधु साध्वियें वहाँ पधारे थे। कई साधुओं ने मुझे पूछा कि तुम किस गच्छ के हो ? मैं उपकेशगच्छ का हूँ । उपकेश ओटले शुं ? श्राचार्य रत्नप्रभसूरि का गच्छ उपकेशगच्छ है । यह नाम ही उन्होंने नया ही सुना अर्थात् उनको बड़ा ही आश्चर्य हुआ। बाद मैंने उन महात्माओं को समझाया तथा मुनिश्रीसिद्ध विजयजीमहाराज ने कहा कि अरे साधुश्रो ! तुम इस बात को भले ही न समझते हो पर मैं जानता हूँ कि उपकेश गच्छ सब से पुराना और जेष्ठ गच्छ है इसके संस्थापक हैं श्राचार्यरत्नप्रभसूरीश्वरजी जो भगवान् पार्श्वनाथ के छटे पट्टधर हुये हैं जिन्होंने मारवाड़ में ओसियानगर में क्षत्रियों को प्रतिबोध करके श्रोसवाल बनाये थे इत्यादि । ४ - पन्यास श्रीगुलाब विजयजीमहाराज भट्ठी की पोल एवं पं० वीरविजयजी महाराज के उपाश्रय में विराजते थे। मैं जब वि० सं० १९७४ में अहमदाबाद गया था तो आप के दर्शनार्थ गया । वहां भी श्रीसवालों के संबंध से बातें हुई तो आरने फरमाया कि श्रोसवालों को वीर स ७० में आचार्य रत्नप्रभसूरि बनाये थे । मैंने पूछा कि इसके जिये आपके पास कोई प्राचीन प्रमाण है तो श्रापने एक हस्तलिखित प्राचीन पट्टावली के पन्ने निकाल कर मुझे बताया कि देखो इस पट्टावली में स्पष्ट लिखा है कि वीरात् ७० वर्षे आचार्य रत्नप्रभसूरि ने उपकेशपुर नगर में आचारपतित सत्रा लक्ष क्षत्रियों को जैनी बनाया। उन जैनों का नाम ही उपकेशवंश तथा श्रोसवाल हुआ है इत्यादि । ५ - आचार्य विजयधर्मसूरीश्वरजी महाराज ने सूरतनगर गोपीपुरा की नेमुभाई की बाड़ी में व्याख्यान में फरमाया कि ओसवालो ! तुम्हारी जन्म भूमि मारवाड़ में ओसियां नगरी है, वोरात ७० वे वर्ष आचार्य रत्नप्रभसूर ने वहां के राजपूतों को जैनी बनाये, वही लोग ओसियां नगरी के नाम से ओसवाल कहलाये । से ओसवाल इधर गुजरात की विक्रम की बट्टी शताब्दी में हूणों अत्याचार के कारण मारवाड़ से बहुत ओर गये हैं पर सवालों का उत्पत्तिस्थान तो ओसियां नगरी ही हैं। आचार्य स्वप्रभसूरि की कराई हुई प्रतिष्ठा वाला महावीर मंदिर आज भी ओसियां में विद्यमान है । ६ -- श्राचार्य बुद्धिसागरसूरिजी महाराज फरमाते हैं कि :--- उपकेशगच्छ-तेवीसमा तीर्थंकर श्रीपार्श्वनाथ प्रभुना शासननी गच्छ परंपरा हजु चालुजहती । अत्यारे तेमनी पाटे छट्टा श्रीरतप्रभसूरिजी थया । तेणे उपकेश पट्टनमा महावीर स्वामीनी प्रतिमानी प्रतिष्ठा करी । तेणे ओसियानगरीमां राजा अने क्षत्रियोने प्रतिबोध देओनी ओशवंश Jain Education International For Private & Personal Use Only १७१ www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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