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________________ वि० पू० ४००६ | [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास जैनाचार्य और मुनिवरों के लेखों में सवंश की उत्पत्ति के विषय प्रमाणा १ आचार्य श्रीविजयानन्दसूरीश्वरजी महाराज प्र. - कौन जाने किसी धूर्त ने अपनी कल्पना से श्रीपार्श्वनाथ और उनकीपटूपरम्परा लिख दी होवेंगी, इससे हमको क्यों कर श्री पार्श्वनाथ हुये निश्चित होवे ? ४२ ---जिन आचार्यों के नाम श्रीपार्श्वनाथजी से लेकर आज तक लिखे हुए हैं उनमें से कितनेक श्राचार्य ने जो जो काम किये हैं वे प्रत्यक्ष देखने में आते हैं जैसे श्रीपाश्वनाथजी से छट्टे पट्ट ऊपर श्री प्रसूरिजी ने वीरात् ७० वर्ष पीछे उपकेश पट्टन के श्रीमहावीरस्वामी की प्रतिष्ठा करी सो मंदिर और प्रतिमा आज तक विद्यमान है, तथा अयरणपुर की छावनी से ६ कोस के लगभम कोरंटनामानगर ऊजड़ पड़ा है जिस जगह कोरंटा नामक आज के काल में गाम बसता है वहाँ भी श्रीमहावीरजी की प्रतिमामंदिर की श्री सूरिजी की प्रतिष्ठा करी हुई अब विद्यमान काल में सो मंदिर खड़ा है तथा उसवाल और श्रीमाल जो वरिये लोकों में श्रावक ज्ञाति प्रसिद्ध हैं वे भी प्रथम श्रीरत्नप्रभसूरिजी ने ही स्थापना करी है तथा श्रीपार्श्वनाथजी से १७ सत्तरहवें पट्ट ऊपर श्रीयक्षदेवसूरि हुये हैं । वीरात् ५८५ वर्षे । जिन्होंने बारह वर्षीय काल में स्वामी के शिष्य वज्रसेन के परलोक हुये पीछे तिनके चार मुख्य शिष्य जिनको बज सेनजी ने सोपारक पट्टा में दीक्षा दीनी थी तिनके नाम से चार शाखा- कुल स्थापन करे, वे ये हैं नागेन्द्र १ द्र २ निवृत्ति ३ विद्याधर ४ । यह चारों कुल जैन मत में प्रसिद्ध हैं, तिनमें से नागेन्द्र कुल ਜੋ उदयप्रभ सूरि मल्लिषेण सूरि प्रमुख और चन्द्रकुल में बड़गच्छ, तपगच्छ, खरतरगच्छ, पूर्णतल्लीयगच्छ, देवचंद्रसूरि के शिष्य कुमारपाल के प्रतिबोधक श्री हेमचन्द्रसूरि प्रमुख श्राचार्य हुए हैं तथा निवृत्तकुल में श्रीशीलांकाचार्य श्री सूरि प्रमुख श्राचार्य हुये हैं तथा विद्याधर कुल में १४४४ ग्रंथ के कर्त्ता श्री हरिभद्रसूरि प्रमुखाचार्य ये हैं तथा मैं इस ग्रंथ का लिखने वाला चन्द्रकुल में हूँ। तथा पैंतीसवें पट्ट ऊपर श्रीदेवगुह सूरिजी हुये हैं जिन्हों के समीपे श्रीदेवद्विगणि क्षमाश्रमणजी ने दो पूर्व पढ़े थे तथा श्रीपार्श्वनाथजी के ४३ पट्ट ऊपर श्री सूरि पंचप्रमाण प्रथ के कर्त्ता हुये हैं सो ग्रंथ विद्यमान है तथा ४४ वें पट्ट ऊपर श्रीदेवगुप्तसूरिजी विक्रमात् १०७२ वर्ष नवपद प्रकरण के कर्त्ता हुये हैं सो भी ग्रंथ विद्यमान है तथा श्रीमहावीरजी की परम्परा वाले आचार्यों ने अपने बनाये कितनेक प्रन्थों में प्रगट लिखा है कि उपकेशगच्छ है सो पट्ट परम्परा से पार्श्वनाथ २३ वें तीर्थंकर से श्रविच्छिन्न चला आता है। जब जिन श्राचार्यों की प्रतिमा मंदिर की प्रतिष्ठा करी हुई और ग्रंथ रचे हुये विद्यमान हैं तो फिर उनके होने में जो पुरुष संशय करता है उसको अपने पिता पितामह प्रपितामह आदि की वंश परम्परा में भी संशय करना चाहिये । जैसे क्या जाने मेरी सातवीं पेढ़ी का पुरुष श्रागे हुआ है कि नहीं। इस तरह का जो संशय कोई विवेक - विकल करे उसको सब बुद्धिमान उन्मत्त कहेंगे। इसी तरह श्रीपार्श्वनाथ की पट्ट परम्परा के विद्यमान होने पर जो पुरुष श्री पार्श्वनाथ २३ तीर्थकर के होने में संशय करे तिसको भी प्रेक्षावंत पुरुष उन्मत्त की ही पंक्ति में समझते हैं तथा पुरुष जो काम करता है सो अपने किसी संसारिक सुख के वास्ते करता है परन्तु सर्व संसारिक १७० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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