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________________ ओसवाल जाति की ऐतिहासिकता ] [वि० पू० ४०० वर्ष जो आन्दोलन ओसियों नगर से ( जो मारवाड़ में जोधपुर के निकट आजकल तो प्राममात्र है ) प्रारम्भ किया था और सर्व प्रथम उस नगर के राजा उत्पलदेव पंवार (सूर्यवंशी) को जैनधर्म का प्रतिबोध देकर राजा सहित १८ गोत्रों के क्षत्रियों को जैनधर्म अंगीकार कराया था, एवं उन्हें सकुटुंब जैन क्षत्रिय बनाया था । उसके फलस्वरूप ओसवाल ( श्रोसियाँ वाले ) जाति उत्पन्न और आरम्भ हुई । एक जाति की स्थापना सिर्फ चमत्कार वश नहीं हो सकती थी । सिद्धि और चमत्कार तो कई जगह नजर आते हैं लेकिन कोई जनसमूह अन्धश्रद्धा या अंध विश्वास से एक सूत्र में बंधना स्वीकार नहीं करता है। जब तक मनोवृत्तियाँ एक कौम में नहीं आती और चित्त को शान्ति व श्रानन्द की आशा नहीं होती तब तक कोई भी नये पंथ पर आना पसन्द नहीं करता। बाद में १८ गोत्र स्थापित हुये और यह आन्दोलन कभी तीव्र तो कभी मंद गति से चलता रहा। __ प्रोसवाल समाज की परिस्थिति पृष्ठ २ लेखक श्रीमान् मूलचन्दजी बोहरा-अजमेर ८-ओसवाल जाति की उत्पत्ति के विषय मैंने आज पर्यन्त जितने प्रन्थ देखे हैं उनके सारांश रूप इस निर्णय पर आया हूँ कि ओसवालों की उत्पत्ति विक्रम पूर्व ४०० वर्ष में प्राचार्य रत्नप्रभसूरि द्वारा हुई है और इसका शुरू से महाजन संघ, बाद उपकेशवंश नाम था जिसको आज हम श्रोसवाल कहते हैं । एक समय इस जाति की बड़ी भारी जाहोजलाली थी। हंसराज मूथा महाजनों को महता शीर्षक लेख" ९-मैं ओसवालों को उत्पत्ति के विषय में कतई अनभिज्ञ था परन्तु जब मुझे श्रोसवालोत्पत्ति विषयक साहित्य पढ़ने का मुनि श्रीज्ञानसुंदरजी की कृपा से अवसरप्राप्त हुआ और उपकेशगच्छ चरित्र,नाभिनन्दन जिनोद्धार पट्टावलियां और वंशावलियां आदि तथा शिलालेख संग्रह आदि का अवलोकन किया तो मेरी तो यह धारणा हुई कि ओसवाल जाति जिसके पहले दो नाम उपकेशवंश और महाजनवंश हैं वह अति प्राचीन है और विक्रम से ४०० वर्ष पहिले इसकी उत्पत्ति होने में कोई शंका नहीं है। जो लोग धार्मिक साहित्य को बिल्कुल गप्प ही समझते हैं और उस पर विश्वास नहीं करते उनकी बात तो जाने दीजिये परन्तु मैं उन प्रादमियों में से नहीं हूँ । धार्मिक साहित्य धार्मिक पुरुषों द्वारा लिखा जाता है और वे हमसे ज्यादा सच्चे होते हैं। कोई बात किस विशेष कारण से कुछ की कुछ लिख गई हो वह बात दूसरी है परन्तु यह नहीं हो सकता कि सबका सब साहित्य ही झूठ कल्पित अथवा गप्प हो । "श्रीवल्लभ शर्मा" इस प्रकार अनेक विद्वानों की सम्मतियें मेरे पास मौजूद हैं पर ग्रंथ बढ़ जाने के भय से केवल नमूने के तौर पर कतिपय सज्जनों की सम्मतियां दर्ज कर शेष को मुलतवी रखदी हैं। उपरोक्त सम्मतियों को दो विभागों में विभाजित कर दिया जाय तो एक विभाग ओसवंश की उत्पत्ति का समय विक्रम की पांचवीं शताब्दी से दशवीं शताब्दी का और दूसरा विक्रम पूर्व ४०० वर्ष का निर्णय करता है। विक्रम की पांचवीं से दशवीं शताब्दी कहने वालों के पास कुछ भी प्रमाण नहीं है वे केवल अनुमान से ही अपना मगज लड़ाते हैं और उनका मुख्य अाघार शोध खोज पर है । यदि शोध खोज से भविष्य में इस समय से प्राचीन प्रमाण मिल जायगा तो वे उसको सहर्ष मानने को तैयार हैं । अतः उनका मत अभी निश्चित नहीं हैं। तब दूसरे पक्ष की सम्मतियें वि० पू० ४०० वर्ष की हैं। इनका विश्वास ऐतिहासिक प्रमाणों के साथ जैनधर्म के धुरन्धर श्राचार्यों के लिखे पट्टावल्यादि ग्रंथों पर है । इन सबका निर्णय करना विद्वानों की विचारधारा पर ही छोड़ दिया जाता है। Jain Education mational For Private & Personal Use Only www१६९rary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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