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वि० सं० २८२-२६८ वर्ष ]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
कहने पर उसने एक ऐसी तजवीज की कि कोई भी जान न जाय । रानी चेलना को एक कनात के पीछे बैठा दी और राजा को बाहर बिठा कर सुला दिया और तत्काल का मांस लाकर राजा के हृदय पर रख दिया। जब छुरी से काट २ कर मांस रानी को दिया जाता था राजा खूब चिल्लाता था जिससे रानी का दोहला संतोष के साथ पूर्ण हो गया । पर रानी ने सोचा कि जब यह गर्भ में आते ही अपने ही पिता के कलेजे का मांस मांगता है जन्म लेने पर न जाने क्या २ अनर्थ करेगा। अतः इस गर्भ को गिरा दूं। इसके लिये कई उपाय किये पर गर्भ शकुशल रहा । जब जन्म हुआ तो दासी द्वारा रानी ने नवजात पुत्र को अशोक पाड़ी में डलवा दिया। इस बात की खबर राजा श्रेणिक को हुई तो कँवर को लाकर रानी को देते हुए उपालभ्य दिया। कुँवर को अशोक बाड़ी में डाल दिया उस समय कुर्कट ने उसकी एक कोमल उंगली काट खाई अंगभंग होने से उसका नाम कूणिक रखा था जिस ऊंगली को कुर्कट ने खाई थी उसमें बहुत बीमारी हो गई मगर रानी चेलना ने इसके लिये कोई भी इलाज नहीं कराया । पर राजा श्रोणिक उस ऊंगली को मुंह से चूस २ कर उसका पीप दूर फेंका करता था । राजा श्रोणिक, कूणिक का शुभ चिन्तक होकर रहता था। पर जब जवान हुआ तो, रानी चेलना की धारणा सत्य हो गई। कारण-पिता को मार कर राज लेने के लिये काली आदि दस भाइयों को राज का हिस्सा देना मंजूर कर अपने पक्ष में कर लिया और राजा श्रेणिक को पिंजरा में देकर आप मगद का राजा बन गया ।
कूणिक राजा बन, अपनी माता के चरण भेंट ने को गया, पर रानी पहले से ही उदास वैठी थी। राजा कूणिक ने माता को उदास देख कर कहा-माता तेरे पुत्र को राज मिलने पर सब लोग खुश हैं तेरे खुश न होने का क्या कारण है । रानी ने कहा-बेटा ! तूने कौनसी बहादुरी करके राज प्राप्त किया है । कि जिससे मुझे खुशी हो ? मैंने तो तुझे जव ही पहचान किया कि जब तू गर्भ में आया था । क्योंकि तूने गर्भ में आते ही पिता के कलेजा का मांस खाने को मांगा था मैंने गर्भ गिराने की बहुत कोशिश की परन्तु वह गिरा नहीं । जब तेरा जन्म हुआ तो मैंने तुझे अशोकवाड़ी की उखाड़ी पर डलवा दिया था मगर तेरा पिता जाकर तुझे ले आया तेरी उंगली को कुर्कट खा गया था जिसके अन्दर रक्त बिगड़ गया था जिस दुख के कारण तु सारी रात्री रूदन करता रहता था मैंने तेरी जरा भी परवाह नहीं की परन्तु तेरे पिता ने उस बिगड़े हुए रक्त को मुँह से चूस चूस कर थूकते हुए सारी रात्रि व्यतीत कर देते थे। उस उपकार का बदला तूने पिता को पिंजरे में डालने के रूप में दिया । पतला मुझे खुशी किस बात की हो ? इतने शब्द माता से सुनते ही कूणिक के दिल में पिता के प्रति भक्ति पैदा हुई और पिता को पिंजरे से मुक्त करने के लिये बजाय इसके कि किसी दूसरे को भेजे, खुद ही हाथ में फरसी (कुल्हादा) लेकर पिता की ओर चला । जब पिता ने इसको पाता हुआ देखा तो सोचा कि मुझे इसने पिंजरे में तो पहले ही बंद कर दिया है पर अब तो बध (मारना ) करने को आ रहा है, न जाने पुत्र मुझे किसे कुमौत से मारेगा । इससे तो अच्छा है कि मैं स्वयं ही मर जाऊँ । राजा ने अपने पास की हीर कणी ( विषयुक्त ) खाकर तत्काल ही प्राण छो दिया । जिसको देख कूणिक ने पाश्चाताप किया। पर अब पछताये होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत । बाद में क्या हो सकता था ? कूणिक के पूर्वभव में पिता के साथ ऐसे ही कर्म बन्धे हुए थे। अतः जीवन में बडा से बडा कलंक लग गया पर अब उपाय भी क्या हो सकता था !
जब कभी राजा कूणिक राज्यसभा में आकर बैठता तो अपने पिता का स्थान देखकर अपने मन में ७२४
मगददेश राजा कूणिक
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