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________________ वि० सं० २८२-२९८ वर्ष [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास श्वरजी की प्रतीक्षा कर रहे थे। सूरिजी शाकम्भरी, हंसावली, भरहटपुर पद्मावती कुर्चपुर होते हुए नागपुर पधारे । वहाँ के श्रीसंघ ने आप श्रीका बड़े ही समारोह से सत्कार किया। नागपुर में आदित्यनाग गोत्रीय शाह कानड़ ने भगवान पार्श्वनाथ का मंदिर बनाया था जिसकी प्रतिष्ठा सूरिजी के कर कमलों से करवाई। शाह कानड़ ने इस प्रतिष्ठा में सवा लक्ष्य द्रव्य व्यय कर जैनधर्म की अच्छी प्रभावना की। वहाँ से सूरिजी मुग्धपुर, खटकुंपनगर, संखपुर, श्रासिकदुर्ग, हर्षपुर, मेदिनीपुर, माडव्यपुर होते हुए उपकेशपुर की ओर पधारे वहाँ के श्रीसंघ के उत्साह का पार नहीं था । कारण प्रथम तो आप उपकेशपुर के सुपुत्र थे दुसरे जैनधर्म की प्रभावना कर आपने दीक्षा ली थी तीसरे आप प्राचार्य पद से विभूषित हो जैनधर्म की पताका फहराते हुये पधारे। ऐसा कौन हतभाग्य हो कि जिसे अपनी मातृभूमि का गौरव न हो ? श्रीसंघ ने सूरिजी महारान का बड़े ही उत्साह से नगर प्रवेश महोत्सव किया । चतुर्विध श्रीस घ के साथ भगवान महावीर और आचार्य रवप्रभसूरि की यात्रा कर जीवन को सफल बनाया। सूरिजी महाराज दीक्षा लेने के पश्चात् अब ही पधारे थे । जनता की खूब भक्ति थी। सूरिजी का व्याख्यान मधुर रोचक और प्रभावोत्पादक था। जनता खूब उत्साह से सुनती थी। जैन ही क्यों पर जैनेतर लोग भी लाभ उठाते थे। एक दिन सूरिजी महाराज ने फरमाया कि शास्त्रकारों ने मोक्ष मार्ग साधन के लिये मुख्य दो रास्ते बतलाये हैं १-मुनिधर्म २- गृहस्थ धर्म जिसमें मुनि धर्म की विशेषता है परन्तु मुनिपद का अधिकारी वही हो सकता है कि जिसमें मुनिधर्म पालन करने की योग्यता हो। केवल शारिरिक कष्ट जैसे नंगे सिर, नंगे पैर चलना, शिर का लोच करना, शीतोष्णादि परिसह सहन करना आदि को ही मुनि पद नहीं कहा जाता है पर मुनि पद मन की वृत्तियों पर निर्भर है अगर मन वश में नहीं हुआ हो तो शारिरिक कष्ट न तो आते हुए कर्मों को रोक सकता है और न पूर्व कर्मों की सम्यक निर्जरा ही कर सकता है। इतना ही क्यों पर शास्त्रकारों ने तो यहाँ तक भी कहा है कि: चिरं पि से मँडरुई भवित्ता, अथि-रव्वए तवनियमेहि भट्ठे । चिरं पि अप्पाण किलेसइत्ता, न पारए होइ हु संपराये ।। पोल्लेव मुट्ठी जह से असारे, अयंतिए कूडकहावणे वा । राढामणी वेरुलियप्पगासे, अमहग्धए होइ य जाणएसु ॥ कुसीललिंगं इह धारइत्ता, इसिज्झयं जीविय वृहइत्ता । असंजए संजय लप्पमाणे, विणिधायमोगच्छइसेचिरपि ॥ विसं पिवित्ता जह कालकूडं, हणाइ सत्थं जह कुग्गहीयं । एसेव धम्मो विलओववण्णो, हणाइ वेयाल इवाविवण्णो ॥ उद्देसियं कीयगडं नियागं, न मुचती किंचि अणेसिणज्ज । अग्गो विवा सव्वभक्खी भवित्ता, इओचुऐ गच्छइ कट्टु पावं। न तं अरी कंठछेत्ता करेति, जंसे करे अप्पणिया दुरप्पा । से नाहिती मच्चुमुहं तु पने, पच्छाणुतावेण दयाविहूणे ।। सिरिजी का उपकेशपुर में व्याख्यान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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