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आचार्य सिद्धमूरि का जीवन ]
[ ओसवाल संवत् ६८२-६९८
मासा सोना तो ला कि जिससे मेरा गुजारा होगा । कपिल हमेशा दो मासा सोने के लिये जाता पर दूसरे ब्राह्मण पहिले पाकर राजा से सोना लेजाते । आखिर एक दिन कपिल अर्द्धरात्रि के समय उठ कर गया तो पुलिस वाले ने पकड़ लिया और सुबह जाकर राजा के सामने खड़ा किया। राजा ने कपिल से रात्रि में आने का कारण पूछा ? उसने अपने नगर से निकला वहाँ से रात्रि समय का सब हाल था वैसा सत्य कह सुनाया। कपिल की सत्यता पर मंत्रमुग्ध बन राजा ने वरदान दे दिया कि ब्राह्मण जो तेरी इच्छा हो मांग ले मैं देने को तैयार हूँ। कपिल ने सोचा कि जब राजा ने बरदान ही दे दिया है तो अब दो मासा सोना ही क्यों मांगें, मांगलें एक तोला पर पुनः सोचा कि एक तोले से क्या होगा मांगलें सौ, हजार, लाख, करोड़, तोला इस प्रकार कपिल की तृष्णा यहाँ तक बढ़ गई कि राजा का राज ही क्यों नहीं मांग लिया जाय परन्तु कपिल ने सोचा कि अहो तृष्णा ? कि दो मासा सोने के लिये मैं आया था पर तृष्णा यहाँ तक बढ़ गई कि राज से भी संतोष नहीं । इस प्रकार कपिल की सुरत संतोष की ओर बढ़ती २ संसार की असारता तक पहुँची और त्याग भावना आते ही देवता ने श्रोषा मुहपत्ती लाकर देदिये । कपिल साधु बन गया उसकी भावना यहाँ तक प्रशस्त हो गई कि कैवल्य ज्ञान उत्पन्न हो गया। उसने अपने ज्ञान से जाना कि राजगृह नगर के पास अट्ठारह योजन की अटवी है और उसमें बलभद्रादि पाँचसौ चोर हैं वे मेरे उपदेश से प्रतिबोध पाने वाले हैं । अतः कपिल केवली वहाँ गया और चोरों ने कहा हमें कुछ गायन करके सुनाओ कपिल ने कहा बिना बाजित्र के नाच एवं गायन हो नहीं सकता है । पांचसौ चोरों ने कहा हम हस्त ताल बजावेंगे तुम नाचकर गायन करो। तब कपिल केवली ने गायन करते हुये निम्न लिखित गाथा कही । "अधुवे असासयम्मी संसारम्मी दुक्ख पउराए । किं नाम हो जतं कम्मयं, जेणाहंदोग्गइंनगच्छे जा ॥"
इस गाथा से ५०० चोरों को प्रतिबोध करके उन सबको दीक्षा देकर उनका उद्धार किया। महानुभावो! इस उदाहरण से आप स्वयं सोच सकते हो कि तृष्णा कहाँ तक पहुँचती है और जब मनुष्य को सन्तोष की लहर पाती है तब श्रात्मा किस आनन्द का अनुभव करता है । आत्मा का कल्याण न राजपाट में न धन धान्य में न सोना चाँदी रत्न माणिक में पर आत्मा का कल्याण इसका त्याग करने में है। पूर्व जर
माने में बड़े २ चक्रवर्ती छः खंड की ऋद्धि पर लात मार कर मुनि पद का स्वीकार किया था तब ही उनको सन्तोष एवं कल्याण प्राप्त हुआ । क्या मैं उम्मेद कर सकता हूँ कि मेरे इस सारगाभत उपदेश का कुछ प्रभाव आप लोगों पर भी पड़ेगा ? एक तो उस जमाने के लोग लघु कर्मी थे दूसरे उन लोगों को इस प्रकार का उपदेश कभी २ ही मिलता था तीसरे उपदेश दाताओं के भी यश नाम कर्म का उदय और ऐसा ही प्रभाव था। बस वे महानुभाव थे कुंवा के कबूतर कि सूरिजी महाराज की फटकार के साथ उपदेश लगते ही पूरे ५० नरनारी दीक्षा लेने को तैयार हो गये अह हा ! वह कैसा भद्रिक जमाना था, वे कैसे हलुकर्मी जीव थे, उन्होंने पूर्व जन्म में कैसे शुभ कर्मोपार्जन किये थे और उनके मोक्ष कितनी नजदीक थी कि बात की बात में घर-संसार त्याग कर दीक्षा लेने को तैयार हो जाते थे। सूरिजी महाराज ने वहाँ कुछ दिन स्थिरता कर उन भावुकों को दीक्षा दी तथा अन्य लोगों ने भी त्याग प्रत्याख्यान कर लाभ उठाया।
तदनन्तर सूरिजी महाराज ने अन्यत्र बिहार कर दिया और श्रावती मेदपाट में उपदेश करते हुये मरुधर में पदार्पण किया तो मरुधर वासियों के हर्ष का पार नहीं रहा क्योंकि मरुधर वासी पहिले से ही सूरी कपिल केवली का ५०० चोरों को उपदेश ]
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