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ओसवाल जाति की ऐतिहासिकता ]
[वि० पू० ४०० वर्ष
४ मूल-कं च सुखं ई च लक्ष्मीः कयौ ते ईशे स्वायत्त यत्र यस्माद्वा सः केशः अर्थात् जैनोधर्मः । सः उपसमीपे अधिको वाऽस्माद्गच्छात् स उपकेश इति चतुर्थोर्थः ॥ ४ ॥
हिन्दी अनुवाद-क= सुख, ई = लक्ष्मी ये दोनों जिस धर्म में या जिस धर्म में तद्धर्मी मनुष्यों के स्वाधीन हैं उस धर्म का नाम हुआ केश अर्थात् स्वाधीन सुख संपत्ति वाला जैनधर्म । और वह धर्म ( जैन धर्म ) जिस गच्छ से उप = समीप में हो या जिससे अधिक प्राप्त हो उस गच्छ का नाम भी उपकेश गच्छ है । इस प्रकार यह इसका चौथा अर्थ है।
५ मूल-कश्च, अश्व, ईशश्च = केशाः ब्रह्मा विष्णु महेशाः । तद्धर्म निराकरणात्ते उपहताः येन सउपकेशः । प्रकरणादत्र श्री रत्नप्रभसूरि गुरुः तस्याऽय' उपकेशः । अत्राऽपि "तस्येद मित्यणि प्रत्यये पूर्वववृद्धेरभावो न दोष पोषणायेति पंचमोऽर्थः ॥ ५ ॥
हिन्दी अनुवाद-क, अ, और ईश इन तीनों से बना केश जिसका अर्थ होता है ब्रह्मा विष्णु और महेश । तथा उनके "ब्रह्मा विष्णु महेश के" धर्म का निराकरण करने के कारण ते = वे ( ब्रह्मा विष्णु महेश) उपहताः= दूर किये गए हैं येन = जिससे सः = वह हुआ उपकेश । प्रकरण वश यहाँ उपकेश नाम से श्री रत्नप्रभसूरि का ग्रहण करना चाहिये । बाद में तस्य = उस "उपकेश" विभूषित श्री रत्नप्रभसूरि का अयं = यह गच्छ है इससे इस गच्छ का नाम भी उपकेश प्रसिद्ध है। यहाँ पर भी "तस्येदम्" इस सूत्र से अण प्रत्यय होने पर पूर्ववत् वृद्धि का अभाव हो जाता है । यह उपकेश शब्द का पाँचवाँ अर्थ है।
इत्थमन्येऽप्यनेकाः ग्रन्थाऽनुसारेण विधीयते । परमलं बहु श्रमेणेति । एव मुक्त व्यक्त युक्ति व्यतिशक्त्या ओकेशोपलक्षणे-- उभे अपि नाम्नी यथार्थे घटां प्राचत इति ओकेशोपकेश पद द्वयदशार्थी समाप्ता ।।
हिन्दी अनुवाद-इस प्रकार ग्रंथों के अनुसार इन दोनों पदों के और भी अनेक अर्थ किए जा सकते हैं पर यहाँ पर मैंने संक्षेप से पूर्वोक्त दश अर्थ किये हैं, विद्वानों के लिये येही पर्याप्त हैं । तथा इस तरह की कथित प्रकट युक्ति व्यतिशक्ति से ओकेश शब्द के उपलक्षण रूप दोनों शब्द अपने यथार्थ स्वरूप को प्रकट करते हैं।
इस तरह ओकेश श्रोपकेश इन दोनों पदों के दश अर्थ यहाँ समाप्त होते हैं। ॐ शान्तिः ३ ॥
इति संवत् १६५५ वर्षे श्रीमद्विक्रमपुरनगरे सकलवादी वृन्द कंद कुद्दाल श्रीककुदाचार्य सन्तानीय श्रीमच्छ्रीसिद्धसूरीणां आग्रहतः श्रीमबृहत्खरतर-गच्छीयवाचनाचार्य श्रीज्ञानविमल गणि शिष्य पण्डित श्रीवल्लभगणिविरचिताचेयम् ।। श्रीरस्तु ।
आचार्य रत्नप्रभसूरि ने उपकेशपुर के प्राचार पतित क्षत्रियों को मांस मदिरा और व्यभिचारादि कुव्यसन छुड़ा कर जैन धर्म की शिक्षा दीक्षा देकर जैनी बना कर इस जनसमूह का नाम 'महाजन-संघ रक्खा । इस संस्था ने आगे चल कर इतना जबरदस्त काम किया कि पिछले आचार्यों ने जब जब जैनेतरों को उपदेश देकर जैनधर्म में दीक्षित किया तो वे पूर्व स्थापित महाजन संघ में ही मिलाते गये। क्योंकि वे दूरदर्शी प्राचार्य इस बात को अच्छी तरह से जानते थे कि अपने बनाये नूतन जैनों को अलग रखेंगे तो
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