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________________ वि० पू० ४०० वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास हिन्दी अनुवाद-अब हम प्रस्तावक्रम से उपकेश शब्द के भी कुछ अर्थ लिखते हैं। जैसे उप।। समीप में हैं केश जिसके वह उपकेश अर्थात् श्रीपार्श्वनाथ सन्तानीय केशीकुमाराऽनगार, "इसका उत्पत्ति वृतान्त श्री स्थानायांग सूत्र की वृत्ति में सप्रपञ्च ( विस्तार से ) वर्णित है अतः जिन्हें देखने की इच्छा हो उक्त पुस्तक से देख लेना चाहिये ।" बाद में उपकेशः = श्री केशीकुमाराऽनगार है पूर्वज गुरु जिस गण में उस गण का नाम भी उपकेश हुआ यहाँ बहुव्रीहि समास करके "अभ्रादित्वात" इससे अ प्रत्यय होता है । स्पष्टार्थ-इस गच्छ में ही श्री केशीकुमाराऽनगार प्राचीन गुरु थे और उन्हीं के अपर नाम उपकेश से इस गच्छ का नाम भी उपकेश शब्द का प्रथम अर्थ हुआ ॥१॥ २ मूल-उपवर्जितात्स्यक्ताः केशाः यत्र स उपकेशः "ओसिकानगरी" तस्याँ हि सत्यका देव्याश्चैत्यमस्ति । तदग्रेचघनैर्जनः प्रथमजातबालकानाँसुदिनेदिने मुण्डन कार्यते । तत उपकेश इति यथार्थ नाम ओसिकानगर्यापख्यातं जातम् । तत्र भवो योगच्छः स उपकेशः प्रोद्यते सद्भिर्विद्वद्भिः । अत्र हि "भवे" इत्यनेन सूत्रेण अणि प्रत्यये "संज्ञा पूर्वकस्य विधेरनित्यत्वावृद्धरभावः" । श्रीरत्नप्रभसूरितः अनेक श्रावक प्रतिबोध विधानाऽनन्तरंलोके गच्छस्य उपकेश इति नाम प्रसिद्धं जात मिति द्वितीयोऽर्थः ॥ २ ॥ हिन्दी अनुवाद-उपवर्जिताः = छोड़े हैं केश जहाँ उस स्थान का नाम उपकेश अर्थात् श्रोसिका नगरी में एक सत्यका देवी का मन्दिर है और उसके आगे धनिक लोग अच्छा दिन देख वहाँ पर अपने पैदा हुए बच्चों का प्रथम मुण्डन संम्कार "झडूला बड़ा" कराते हैं। इससे उपकेश यह श्रोसिका नगरी से ही यथार्थ नाम प्रसिद्ध हुआ है । क्योंकि विद्वान् लोग व्याकरण नियमाऽनुसार वहाँ होने वाले पदार्थ को भी उसी नाम से संबोधित करते हैं । अतः उपकेश "श्रोसिका" से वहाँ पर प्रसिद्ध होने वाले गच्छ का भी उपकेश नाम होना शास्त्र संमत है । यहाँ पर "भावे" इस सूत्र से अण प्रत्यय होता है और "संज्ञा पूर्वस्य विधेरनित्यत्वात्" इस नियम से वृद्धि का अभाव हो जाता है अन्यथा "औपकेश' ऐसा शब्द बन जाता । निष्कर्ष-श्री रत्नप्रभसूरि से उपकेश "श्रोसिका" नगरी में अनेक क्षत्रियों का प्रतिबोध किये जाने पर लोक में उस गच्छ का भी उपकेश नाम प्रसिद्ध हो गया । यह उपकेश शब्द का दूसरा अर्थ है ॥ २॥ ३ मूल-को-ब्रह्मा, अः कृष्णः, अः शंकरः ततो द्वन्द्वे काः। तैरीष्टेऐश्वर्यमनुभवति यः सः केशः । कानां ईशः ऐश्वश्रयस्माद्वा केशः पारतीर्थिकः धर्मः सः उपवर्जितस्त्यक्तो यस्मात् स उपकेशस्तीर्थ कृदुक्त विशुद्ध धर्मः सः विद्यते यस्मिन् गच्छे स उपकेशः । अत्राऽपि "अभ्रादित्वाद प्रत्वयः" इति तृतीयोऽर्थः ॥३॥ हिन्दी अनुवाद-कः = ब्रह्मा श्रः = कृष्ण पुनः अः= शंकर इनका द्वन्द्व समास करने पर 'का' बना ! फिर तैः = उन ब्रह्मा कृष्ण और शंभु अर्थ वाले “का” से जो ऐश्वर्य को अनुभव करे वह हुआ केश अथवा कानां = ईशः केशः ब्रह्मा, कृष्ण और शंभु का है ऐश्वर्य जिससे ऐसा जो केश याने पारतीथक धर्म और वह पारतीर्थिक धर्म जिसने उपवर्जितः = याने छोड़ दिया है वह हुआ उपकेश याने तीर्थङ्करों से कहा हुआ विशुद्ध धर्म तथा ऐसा तीर्थकृदुक्त विशुद्ध धर्म जिस गच्छ में विद्यमान हो, उस गच्छ का नाम भी हुआ उपकेश । यहाँ पर भी "अभ्रादित्वात्" इस गण सूत्र से अप्रत्यय होता है। इस प्रकार उपकेश शब्द का यह तीसरा अर्थ है ॥३॥ 930 Jain Ed International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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