________________
ओसवाल जाति की ऐतिहासिकता ]
वि० पू० ४०० वर्ष ]
४-मूल-अः कृष्णः, आ ब्रह्मा, उः शंकरः, एषाँ द्वन्द्वे आवस्ततः ओभिः कृष्ण ब्रह्मा शंकर देवैः कायते स्तूयते देवाधिदेवत्वादिति ओकः प्रस्तावात् श्रीवर्धमानस्वामी । "क्वचिदिति ड़ प्रत्ययः ओकश्चासौ ईशश्च ओकेशस्तस्याऽयं ओकेशः । वर्तमान तीर्थाधिपति श्रीवर्धमानजिन पति तीर्थाश्रयणादिति चतुर्थोऽर्थः ॥ ४ ॥
हिन्दी अनुवाद-श्रः = कृष्ण, आ= ब्रह्मा, उः = शंकर, इनका द्वन्द्व समास करने पर 'ओ" ऐसा शब्द बना फिर ओभिः = कृष्ण ब्रह्मा और शंकर से जो कायते = स्तुति किया जाय देवाधिदेवपणे से वह श्रोक हुआ याने कृष्णादि से स्तुत देवाधिदेव ! यहाँ पर प्रस्तावक्रम से श्रोक - इसका अर्थ श्रीवर्धमान स्वामी प्रहण करना चाहिये । ओक इसमें "कचित्०"-. इससे ड प्रत्यय होता है । अन्तर ओकश्च असौईशः = जो
ओक वही ईश्वर ऐसा कर्म धारय समास करने से ओकेश शब्द सिद्ध होता है । फिर "तस्य अयं = उसका वह" इस सद्धित नियम से श्रोकेश का उपासक गच्छ भी श्रोकेश ही रहा । क्योंकि यह गच्छ वर्तमान तीर्थाधिपति श्री वर्धमान जिनपति तीर्थङ्कर का श्राश्रित है । यह ओकेश शब्द का चौथा अर्थ हुआ।
५ मूल-अः अर्हन् “अः स्यादर्हति सिद्धे चेत्युक्तेः" प्रस्तावादिह अ इति शब्देन श्री वर्द्धमानस्वामी प्रोच्यते । ततः अस्य ओका गृहं चैत्यमिति यावत् । ओकः श्रीवर्द्धमानस्वामि चैत्य मित्यर्थः । तस्मादीशः ऐश्वयं यस्य स ओकेशः। यतोऽयं गणः श्रीमहावीरतीथंकरसान्निध्यतः स्फाति मवापोति पञ्चमोऽर्थः ॥ एवमस्य पदस्याऽनेकेडव्यर्थाः संबोभुवति परं किं बहु श्रमेणेति ॥शम् ॥
हिन्दी अनुवाद-श्र= अर्हन् “श्रः स्यादर्हति सिद्धे च" = अ: नाम अर्हन और सिद्ध का है इस वचन से । प्रकरण क्रम से इस स्थल पर अ इस शब्द से वर्धमानस्वामी को जानना चाहिये। फिर अस्य = महावीरस्वामी का ओकः = गृह अर्थात् मन्दिर इस तत्पुरुष समास से ओक इसका अर्थ वर्धमान स्वामी का चैत्य हुआ। बाद में तस्मात् = उस वर्धमान स्वामी के चैत्य से है ईशः = ऐश्वर्य जिसका "इस बहुब्राहि समास से" वह प्रोकेश हुआ । कारण यह ओकेश गण श्री महावीर तीर्थङ्कर के सान्निध्य से ही स्फाति = वृद्धि को प्राप्त हुआ है । इस प्रकार ओकेश शब्द का यह पाँचवाँ अर्थ हुआ ॥ ५ ॥
शेष में इस ओकेश पद के इस प्रकार अनेक अर्थ हो सकते हैं परन्तु मैंने अधिक श्रम करना ठीक नहीं समझा है।
अथ उपकेश शब्दस्य कियन्तोऽर्थाः लिख्यन्ते-तद्यथाः
१ उप, समीपे केशाः शिरोरुहाः सन्त्यस्येति उपकेशः श्रीपार्थापत्यीय केशीकुमाराऽनगारः । एतदुत्पत्ति वृत्तान्तस्तु श्रीस्थानांगवृत्त्यादौसमपञ्चः प्रतीत एऽस्ति । तत एवाऽवगन्तव्यः । ततः उपकेशः श्रीकेशकुमाराऽनगार पूर्वजोगुरुर्विद्यतेयस्मिन् गणे स उपकेश "अभ्रादित्वाद प्रत्ययः" अस्मिन् गच्छे हि श्रीकेशीकुमारानगार प्राचीनोगुरुरासीत् । ततोयथार्थमुपकेश इति नाम जात मिति प्रथमोऽर्थः ॥ १॥ - केशीस्त्रमणाचार्य के पट्टधरस्वयंप्रभसूरि और स्वयंप्रभसूरि के पट्टधररत्नप्रभसरि हुये ।
१३३
RE
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.timehorary.org