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आचार्य कक्कसरि का जीवन |
[ ओसवाल संवत् २६४ १३-प्राचार्यश्री कक्कसरि (द्वितीय) आचार्यस्तु स कक्कमरिविह यो नैष्ठीक आसीन्महान् ,
दीक्षानंतर मेव सोऽवगतवान सर्वाणि शास्त्राणि वै । वीरस्तापस एक एव विदितः शक्त्या प्रतापेन च,
सिद्धीना मखिलो गणो व्यरमतां तत्पाद छाया तले ॥ पश्चात्सोऽप्युपकेश नाम नगरे मृर्त्याः सुवीरस्य च,
ग्रन्थी नामव छेद कारण तया विघ्नस्तु जातो महान् । शान्तः सोऽप्यमुना निजेन विहितः सामर्थ्य भारेण वै,
नव्यान् जैनमत प्रभावित तमान् कृत्वा प्रसिद्धिर्गता ॥
artचार्यश्री ककसूरीश्वरजी महाराज बड़े ही प्रतिभाशाली, विद्वान् , तपस्वी और लब्धि संपन्न
आचार्य हुए थे । पाठक गत प्रकरण में पढ़ चुके हैं कि उपकेशपुर के राजा क्षेत्रसिंह ने • अपने लघु पुत्र लखणसिंह के साथ आचार्यश्री यक्षदेवसूरि के चरण कमलों में भगवती दीक्षा
प्रहण की थी । दीक्षा लेने के बाद लखणसिंह का नाम मुनि लक्ष्मीप्रधान रखा गया था। मुनि लक्ष्मीप्रधान ने श्राचार्यश्री को विनय भक्ति करते हुए जैन साहित्य का खुब अध्ययन किया । इतना हो नहीं बल्कि मुनिजी ने जैनेतर साहित्य एवं दार्शनिक तथा व्याकरण, न्याय, काव्य, तर्क, छंद, अलंकार, और ज्योतिषादि अष्टांग महानिमित्त का भी अच्छा अभ्यास कर लिया था। आपकी युक्ति एवं तर्क शक्ति इतनी जबर्दस्त थी कि आपने कई राजा महाराजा त्रों को सभाओं में वादियों को परास्त कर जैनधर्म को विजय पताका चारों ओर फहरा दी थी। यही कारण था कि वादी प्रतिवादी आपके सामने सदैव नत मस्तक रहते थे, इतना ही नहीं पर वे आपके नाम मात्र से काँप उठते थे। एक बार तो बौ द्वाचार्य धम दित्य के साथ आपका शास्त्रार्थ हुभा था उसमें भी विजय माला श्रापके ही कण्ठ में शोभित हुई थी ! यज्ञ हिला का तो श्रापश्री सख्त विरोध करते थे और जहाँ तहाँ भ्रमण कर आपने 'अहिसा परमोधर्मः' का विजय डंका बजव दिया था। आप तप करने में बड़े ही शरवीर थे। छठ, अठम, अठाइयों एवं मास खामण के तप तथा कई प्रकार के अभिप्रह कर कठोर तपश्चर्या भी किया करते थे और उस कठोर तपश्चर्या के प्रभाव से अनेक राजा महाराजा तो क्या पर कई देवी देवता आपके चरण कमलों की सेवा करते थे। सरस्वती और लक्ष्मी देवियाँ तो आपके प्रति सदेव वरदाई रहती थीं। श्राप जैसे तेजस्वी व यशस्वी थे वैसे वचःस्वी भी थे। आपका व्याख्यान इतना रोचक एवं मधुर होता था कि बड़े बड़े राजा महाराजा सुनने के लिये लालायित रहते थे। धर्म प्रचार करने में तो आप इतने कट्टर थे कि जहाँ पधारते वहाँ अनेक जनेतरों को जैन बनाने में सिद्धहस्त थे । इतना ही क्यों पर आपने अनेकों नर-नारियों को जैन दीक्षा देकर श्रमण संघ में भी आशातीत वृद्धि की थी। इन सब आप
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