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वि० पू० १३६ वर्ष ]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
के आदर्श गुणों से प्रसन्न हो कर प्राचार्य यक्षदेवसूरि ने अपनी अन्तिमावस्वा में आपको आचार्य पद से विभूषित कर आपका नाम कक्कसूरि रक्खा था ।
जब आप प्राचार्य बन गये तो अखिल गच्छ की जुम्मेवारी आपके सिर श्रा पड़ी पर इस कार्य में आप पहले से ही अच्छे निपुण एवं कुशल थे बाद आपश्री ने एक समय चन्द्रावती नगरी में पधार कर वहाँ के राजा त्रिभुवनसेन को ऐसा उपदेश दिया कि उसने मरुधरादि प्रान्तों में विहार करने वाले साधुओं की एक श्रमण सभा की जिसमें उपकेशगच्छ एवं कोरंटगच्छ के प्रायः सब साधु साध्वियों को आमंत्रण देकर बुलवाये । इसमें कोरंटगच्छ के आचार्य सोमप्रभसूरि ( द्वितीय ) अपने शिष्य समुदाय के साथ पधारे। दोनों गच्छों के करीब ३००० साधु साध्वियाँ तथा आवन्ति प्रदेश में विचरने वाले कई साधु भी इस सभा में एकत्र हुये थे । उस समय श्राद्ध वर्ग भी बहुत संख्या में आये थे कारण कि ऐसा कल्याण कारी अवसर उन लोगों को फिर कब मिलने वाला था। इस प्रकार चतुर्विध श्री संघ चन्द्रावती में एकत्र हुआ।
ठीक समय पर सभा हुई । उसमें आचार्य कक्कसूरिजी महाराज ने अपनी ओजस्विनी वाणी द्वारा साधु साध्वियों को संबोधन करके कहा:-महानुभावों! आपने संसार को असार जान कर सब भौतिक सुख साहबी त्याग कर दीक्षा ली है अतः आप अपना कल्याण करें इसमें कोई विशेषता की बात नहीं है पर अपने कल्याण के साथ अन्य भूले भटके भाइयों को सन्मार्ग पर लाकर उनका कल्याण करना यही आपके जीवन की विशेषता है । आप जानते हैं कि इस समय मुनियों को प्रत्येक प्रांत में घूम घूम कर जैनधर्म का प्रचार करने की कितनी आवश्यकता है । अपने पूर्वज-महात्माओं ने किस प्रकार की कठिनाइयों और परिसहों को सहन कर अपने लिये विहार के कैसे सुगम रास्ते बना गये है कि आज आप किसी भी प्रांत में जावें अपने को कहीं भी कष्ट उठाने की आवश्यकता नहीं रहती है । मरुधर, लाट, सौराष्ट्र, कच्छ, सिध और पांचाल तक तो जैनधर्म का प्रचार हो गया है पर अभी दक्षिण की ओर किसी का भी बिहार नहीं हुआ है । हां प्राचीन जमाने में लोहित्याचार्य ने दक्षिण में जाकर जैनधर्म का प्रचार अवश्य किया था पर इस समय वहां का क्या हाल है ? अतः आप लोगों को दक्षिण की ओर बिहार करना चाहिये और यही आपकी परीक्षा का समय है। जैसे मनुष्य स्वयं मरना चाहे तो एक सुई भी काफी है तब ये जो बड़े-बड़े अस्त्र-शस्त्र रक्खे जाते हैं वे किसके लिये हैं ? अन्यायी को सजा देने के लिये । इसी प्रकार आप अपना कल्याण एक नवकार मंत्र मात्र से कर सकते हैं फिर इतने शास्त्रों का अध्ययन किया है वह किस लिये ? उपरोक्त न्याय से यह भूले भटके प्राणियों के लिये ही है कि इन शास्त्रों द्वारा उनको समझाया जाय इत्यादि । सूरिजी ने इस प्रकार का उपदेश दिया कि उपस्थित मुनियो के हृदयों में जैनधर्म प्रचार के लिये मानो एक प्रकार की बिजली ही चमक उठी हो, विशेषता यह थी कि उन मुनियों की भावना दक्षिण में विहार करने की हो गई । उसी सभा में कई मुनियों ने सूरिजी से प्रार्थना की कि हे पूज्यवर ! यदि आप आज्ञा फरमावे तो हम लोग दक्षिण की ओर विहार करने को तैयार हैं। बस सूरिजी यही चाहते थे । आचार्यश्री ने योग्य मुनियों को पदवियों से विभूषित कर पाँच पदस्थों के साथ पाँचसौ साधुओं को देकर अर्थात् एक एक पदवीधर के साथ सौ-सौ साधु देकर पाँच जत्थे बना दिये और क्रमशः सौ-सौ साधुओं को एक-एक रास्ते जाने की आज्ञा दे दी। और मुनिवर्ग ने बड़े उत्साह के साथ विहार करने के लिये प्रस्थान भी कर दिया। बलिहारी है उन सूरीश्वरजी एवं आपश्री के शिष्यों की
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