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आचार्य कक्कमरि का जीवन ]
[ ओसवाल संवत् १६४
कि उन्होंके हृदय में धर्म प्रचार की कैसी भावना थी कि दुःख सुख की परवाह न करते हुए सूरिजी की आज्ञा शिरोधार्य कर शीघ्र ही दक्षिण की ओर धर्मप्रचार के निमित्त प्रस्थान कर दिया।
शेष साधुओं को भी जहाँ जैसी आवश्यकता थी उसके अनुसार पृथक् २ प्रांतों में विहार की आज्ञा दे दी । तत्पश्चात् आचार्य सोमप्रभसूरि ने कहा:--पूज्य ! हम भी आपकी आज्ञा चाहते हैं, कृपा कर फरमा जैसी आपकी आज्ञा हो हम भी विहार करने को तैयार हैं। आचार्य कक्कसूरिजी ने कहा:-सूरिजी ! श्राप और हम दो नहीं पर एक ही हैं चाहे गच्छ का नाम अलग हो एवं आचार्य अलग होते हों पर जैनधर्म का प्रचार करने में तो अपन सब एक ही हैं और सब का ध्येय एक स्वात्मा के साथ परात्मा का कल्याण करते हुए जैनधर्म का प्रचार करना ही है इत्यादि पुनः प्राचार्य ककसरि ने फरमाया कि आप और आपके साधु अभी मरुधर के अलावा अन्य प्रांतों में नहीं पधारे हैं अतः आपको एक प्रांत में न रह कर अनेक प्रांतों में विहार करना चाहिये । अगर आपकी इच्छा हो तो श्री सिद्धगिरि की यात्रा करते हुए कच्छ, सिंध पांचाल होते हुये पूर्व प्रान्त तक पधारें और वहां सम्मेतशिखर आदि की यात्रा का लाभ हासिल कर लें।
आचार्यश्री की आज्ञा शिरोधार्य कर आचार्य सोमप्रभसूरि अपने कई विद्वान शिष्यों के साथ विहार करके श्रीशत्रुजय तीर्थ की यात्रा कर सौराष्ट्र कच्छ में भ्रमण करते सिंध में पधार गये।
सूरिजी ने चंद्रावती के राजा त्रिभुवनसेन आदि को भी उपदेश दिया कि हे राजन् ! मुनि तो प्रत्येक प्रांतों में घूम घूम कर धर्म का प्रचार करते ही हैं पर आप लोगों को भी इस कार्य में भाग लेना चाहिये । आपके पूर्वजों ने जैनधर्म के प्रचार के लिये बहुत प्रयत्न किया था उसी का ही यह सुन्दर फल है कि आज जैनधर्म का सर्वत्र सूर्य की भांति प्रकाश हो रहा है इत्यादि । राजादि सब लोगों ने कहाः-पूज्यवर ! आपका फर• माना सत्य है और आप जैसे प्रेरक महात्मानों ने इस घोर मिथ्यात्व और दुराचारियों के पाखंड को हटा कर जैनधर्म का साम्राज्य स्थापित किया है पर हम लोग गृहस्थ एवं संसार में हस्ती की भांति खूच रहे हैं फिर भी आप श्रीमान् हुक्म फरमा वह शिरोधार्य करने को हम तय्यार हैं इत्यादि । सूरिजी के उपदेश का जनता पर बड़ा भारी असर हुआ । और वे जैन धर्म का प्रचार के लिये तैयार हो गये। _आचार्यश्री ककसूरिजी महाराज ने अपने जीवन में प्रत्येक प्रांत में घूम घूम कर जैनधर्म का खूब प्रचार किया, साधु समाज को उत्तेजित कर उनके द्वारा जैन समाज को जागृत कर धर्म की खूब उन्नति करवाई।
आचार्य ककसूरि जैसे धर्म प्रचारक थे वैसे ही पिछली अवस्था में आप योगसाधना करते हुए समाधि को विशेष चाहते थे । यही कारण है कि आप परम निर्वृत्ति के स्थान आबू एवं गिरनार की भीमकाय गुफाओं में रह कर ध्यान किया करते थे। आप श्री की योग साधना को देख कर कई जैन एवं जैनेतर लोग भी श्राप श्री के पास योगाभ्यास करने को आया करते थे और आप श्री ने अपनी उदारतापूर्वक बिना किसी भेदभाव उनको योग एवं ध्यान अभ्यास कराया करते थे।
एक समय का जिक्र है कि उपकेशपुर में श्रीस्वयंभू महावीर के मंदिर में अष्टाझिका महोत्सव हो रहा था, वहाँ वृद्धों के साथ कई नवयुवक भी पूजा अर्चा किया करते थे। एक दिन कई नवयुवक मूर्ति को प्रक्षाल करवा कर अंगलूणे करते थे तो मूर्ति के हृदयस्थल पर नींबू के फल सहश दो गांठे देख उनके दिल में यह भाव
* स्वयंभूश्रीमहावीरस्नात्रविधिकाले, कोसौविधिः कदाकिमर्थसंजातःइत्युच्यन्तेतस्मिन्नेव देवगृहेअष्टान्हिकादिकमहोत्सवंकुर्वतास्तेषांमध्ये अपरिणतवयसाकेषांचित्चित्तेइयंदुर्बुद्धिःसंजाताः ।
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