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वि० पू० १३६ वर्ष
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
उत्पन्न हुए कि इतनी चमत्कारी एवं सुंदर प्राकृतिवाली मूर्ति होने पर भी इसके हृदय पर दो ये ग्रंथियें शोभा नहीं देती हैं हरस के मुवाफिक खराब लगती हैं। किसी ने कहा कि स्त्रियों के स्तन की भाँति ये गांठे अच्छी नहीं दिखती हैं, किसी ने कहा कि अब काल गिरता एवं खराब आता है । यदि अंगलूणे करते समय किसी की भावना खराब होजायगी तो महान आशातना का कारण होगा इत्यादि जिसके जैसा जीमें आया वैसे ही कहा । इस पर नवयुवकों ने विचार किया कि इन ग्रंथियों को कटाकर दूर क्यों न करवादी जाय । इस इरादे से उन्होंने बुजुर्गों से प्रार्थना की कि मूर्ति के हृदय पर जो दो प्रथिये हैं उनको कटा दी जाय तो क्या हानि है ? इस पर दुखी हृदय से वृद्धों ने कहा:-अरे मूखों ! तुमने बिना विचारे यह सवाल क्यों किया है ? खैर, आज तो हमने सुन लिया है पर आईदे से कभी ऐसा शब्द न निकालना । क्या तुम लोगों को यह मालूम नहीं है कि यह प्रभावशाली मूर्ति देवी सच्चायिका ने बनाई है और महा प्रतिभाशाली श्राचार्यश्री रत्नप्रभ सूरि ने इसकी शुभ-लग्न में प्रतिष्ठा करवाई है । उस समय ये दोनों ग्रंथियें मौजूद थीं, यदि ये इन पंथिये को ठीक नहीं समझते तो क्या उस समय सुथार नहीं था, या क्या टॉकी नहीं थी, वे स्वयं हटा देते पर उन्होंने सोच समझ कर इन प्रथियों को रहने दिया है। ये श्रीसंघ की भलाई के लिये ही हैं और इस मूर्ति की प्रतिष्ठा होने के बाद श्रीसंघ की सब तरह से वृद्धि हुई है अतः तुम लोग जवानी के मद में कहीं मूल प्रतिष्ठा का भंग कर अनर्थ न कर डालना इत्यादि खूब समझाया । उस समय तो नवयुवकों ने वृद्धो का कहना मान लिया पर उनके दिल में यह बात हर दम खटकती जरूर थी और वे लोग ऐसे समय की राह देख रहे थे कि मौका मिलने पर दोनों गाठे हटा कर अपना दिल चाहा करलें। यदुत भगवन् महावीरस्यहृदयग्रन्थीद्वयं पूजांकुर्वतांकुशोभाकरोति अतःमशकरोगवत्छेदयितां को दोषां? वृद्धः कथितं अयं अघटितः टंकिना घातो नअर्ह विशेषतो अस्मिन् स्वयंभूश्रीमहावीर विवं । वृद्धवाक्यमवगण्यप्रच्छन्नंसूत्रधारस्यद्रव्यं दत्वाग्रन्थिद्वयंछेदितं तत्क्षणादेवसूत्रधारोमृतःप्रन्थिच्छेदप्रदेशेतु रक्तधाराछुटिता । तत् उपद्रवोजातः। तदा उपकेशगच्छाधिपति आचार्यश्रीकक्कमरिभिःपायम्दिःचतुर्विधसंघेनाहूता । वृत्तांतंकथितं आचार्य चतुर्विधसंघसहितेनउपवासत्रयंकृतं । तृतीयउपवासप्रान्तेरात्रिसमयेशासनदेवीप्रत्यक्षी भूयआचार्यायप्रोक्तं-- हे प्रभो न युक्तंकृतंबालश्रावकै मद्घटितंबिंबंआशातितंकलानी शकृतंअतोनंतरंउपकेशनगरंशनैः २ उपभ्रशंभविष्यति । गच्छेविरोधीभविप्यति । श्रावकाणां कलहोभविष्यति गोष्ठिकानगरात् दिशेदिशयास्यति । आचार्यःप्रोक्तंपरमेश्वरि ! भवितव्यपरं त्वंश्रवतुरुधिरंनिवारय ? देव्याप्रोक्तंघृतघटेनदधिघटेनइक्षुर घटेनदुग्धघटेनजलघटेन कृतोपवासत्रययदा भविष्यति तदा अष्टादशागोत्रमेलंकुरु तेमी तातहडगोत्रं, बापणागोत्रं, कर्णाटगोत्रं, चलहगोत्रं, मोराक्षगोत्रं, कुलहटगोत्रं, विरहटगोत्रं, श्री श्रीमालगोत्रं, श्रेष्ठिगोत्रं, एतेदक्षिणबाहु, सुचंतीगोत्रं, आइचणागगोत्रं, भूरिंगोत्रं, भाद्रगोत्रं, चींचटगोत्रं, कुंभटगोत्रं, कनउजयागोत्रं, डिंडभगोत्रं, लघुष्ठिगोत्रं, एतेवामवाहुस्नात्रंकर्तव्यं नान्यथाऽशिवो, शान्तिर्भविष्यति । मूल प्रतिष्ठानंतरं वीरप्रतिष्ठादिविसातीते शतत्रये ३०३ अनेहसि ग्रंथियुगस्य वीरोरस्थस्य भेदोऽजनि दैवयोगात् ।
-'उपकेशगच्छ पट्टावली"
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